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पदोन्नति में आरक्षण निश्चित रूप से कार्यकुशलता और अन्य कर्मियों के मनोबल को गिराने वाला होगा

मेरे विचार
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पिछले कुछ दिनों से बसपा और कुछ पार्टियाँ संसद में सरकारी नौकरियों में जाति के आधार पर प्रोन्नति दिए जाने को लेकर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को बदलने के लिए संविधान संशोधन की बात को लेकर लामबंद हो रहे हैं वह समाज के लिए बहुत ही खतरनाक हो सकता है ।हालांकि सरकारी नौकरी में प्रोन्नति में आरक्षण का मसला कोई नया नहीं है।
बसपा सुप्रीमो मायावती द्वारा सरकारी नौकरी में प्रोन्नति में आरक्षण का मुद्दा उठाना इसी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को जाहिर करता है। उत्तर प्रदेश में सरकारी नौकरी में प्रोन्नति में आरक्षण के उनकी सरकार के फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने रद कर दिया था। तभी से मायावती ने इस संबंध में संविधान संशोधन की बात शुरू कर दी थी। संसद के वर्तमान मानसून सत्र में बीते दिनों उनकी संविधान संशोधन की यह मांग और भी प्रखर हुई है। उनकी इस मांग को लोक जनशक्ति पार्टी के रामविलास पासवान का भी समर्थन मिला है। दोनों दलों द्वारा संसद में दवाब बनाने के बाद सरकार भी मान गई। वह आगामी 22 अगस्त को इससे संबंधित विधेयक लाएगी।
पदोन्नति में आरक्षण का सीधा मतलब यह होगा कि हम अन्य समुदायों को वंचित कर रहे हैं। यह असमानता को बढ़ावा देने वाला कदम होगा। दूसरे, उस संगठन की कार्यकुशलता भी इससे काफी हद तक प्रभावित होगी, क्योंकि किसी भी संगठन में एक निरंतरता, स्थायित्व और समता होती है। संगठन का उद्देश्य यह होता है कि जो उत्कृष्ट है, वह आगे आए। यदि आरक्षण की बैसाखी के सहारे हम पदोन्नति देते जाएं तो संगठन का ढांचागत स्वरूप बिगड़ेगा और यह उस संगठन की कार्यकुशलता को भी प्रभावित करेगा। इसके अलावा भारत में रक्षा, रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन, परमाणु कार्यक्रमों जैसे संगठनों में आरक्षण की व्यवस्था नहीं है। इसका कारण यह है कि उनमें उत्कृष्ट और सर्वोत्तम क्षमता वाले लोगों की जरूरत है।
पदोन्नति में आरक्षण निश्चित रूप से कार्यकुशलता और अन्य कर्मियों के मनोबल को गिराने वाला होगा, लेकिन जाति आधारित राजनीति करने वालों को इससे कोई सरोकार नहीं है कि इससे देश को कितनी क्षति होती है। उनकी सारी ऊर्जा इसमें खर्च होती है कि इससे उन्हें क्या लाभ होगा। पदोन्नति में आरक्षण की मांग करने वाले राजनीतिक दलों से पूछा जाना चाहिए कि उनके दल में ही इस संबंध में क्या कोई प्रावधान किए गए हैं? वर्षो से बसपा अध्यक्ष का पद संभालने वाली मायावती की पार्टी में क्या कोई लोकतंत्र काम करता है? जब वे उत्तर प्रदेश
की मुख्यमंत्री थीं, तब दलितों-वंचितों पर हुए अत्याचारों पर कोई गंभीर कार्रवाई हुई? इन प्रश्नों के जवाब संभवत: उनके पास नहीं हैं, लेकिन यह स्थिति सिर्फ बसपा की ही नहीं है। आज कोई भी राजनीतिक दल आंतरिक लोकतंत्र के मूल्यों को पोषित करने वाला नहीं है। यह विडंबना ही कही जाएगी कि आरक्षण का जो उद्देश्य हमारे संविधान निर्माताओं ने बनाया था, वह आज महज वोट बैंक का काम कर रहा है।
निश्चित तौर पर किसी भी समाज में समानता तब तक नहीं आ सकती जब तक उसमें सभी वर्गों की पर्याप्त भागीदारी न हो ,जब तक की स्वस्थ प्रतिस्पर्धा न हो तब उसमें जीतने की ख़ुशी नहीं होती ।आरक्षण के आधार पर ही सब कुछ किया जाने लगेगा तो अगली बार हमारी ओलम्पिक में टीम को भेजने पर भी क्या स्वर्ण,रजत और कांस्य पदक भी आरक्षित करने की मांग करेंगे?खेलों में भी आरक्षण की नीति लागू की जाये तो क्या मान लेंगे की आरक्षित वर्ग के खिलाडी के 4 रन बनाने पर 6 रन माने जायेंगे? अतः स्वस्थ प्रतिस्पर्धा होनी चाहिए की सभी को समान अवसर मिले और इससे भेदभाव निश्चित तौर पर ख़त्म होगा।

विवेक मनचन्दा,लखनऊ

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