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दवा परीक्षण के लिए मानवों का इस्तेमाल गिनी पिग की तरह हो रहा है

मेरे विचार
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उच्चतम न्यायालय ने देश के नागरिकों पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों की अपरीक्षित दवाओं का गैरकानूनी तरीके से परीक्षण रोकने में सरकार की विफलता के लिए उसे आड़े हाथ लिया है । न्यायालय ने कहा कि दवाओं के ये परीक्षण देश में `बर्बादी’ ला रहे हैं जिस वजह से अनेक नागरिकों की मौत हो चुकी है लेकिन सरकार इस मसले पर अभी भी गहरी नींद में है।
गैर सरकारी संगठन स्वास्थ्य अधिकार मंच का आरोप है कि विभिन्न दवा कंपनियां देश में बड़े पैमाने पर भारतीय नागरिकों पर दवाओं के परीक्षण कर रही हैं। याचिका में आरोप लगाया गया था कि ये कंपनियां देश के विभिन्न राज्यों में मनमाने तरीके से नागरिकों पर दवाओं के परीक्षण कर रही हैं।
गैर सरकारी संगठन का दावा है कि इन्दौर में 3300 से अधिक व्यक्तियों पर इस तरह के परीक्षण किये गये हैं और करीब 15 सरकारी चिकित्सक और दस निजी अस्पतालों के करीब 40 चिकित्सक इन परीक्षणों में शामिल हैं। संगठन की याचिका के अनुसार 233 मानसिक रोगियों और एक दिन से 15 साल की आयु वर्ग के 1833 बच्चों पर ये परीक्षण किये गये हैं। इसके लिये सरकारी चिकित्सकों को करीब 5.5 करोड़ रुपए का भुगतान किया गया। याचिका में कहा गया है कि 2008 में ऐसे परीक्षणों में 288 और 2009 में 637 व्यक्तियों की मृत्यु हुयी जबकि 2010 में 597 व्यक्तियों को जान गंवानी पड़ी है।
सरकार और उसकी एजेंसियों को देखना चाहिए था कि देश में कोई भी मनमाने तरीके से दवाओं का परीक्षण न करने पाए। दुर्भाग्य से सरकार और उसकी एजेंसियों ने इस मामले में घोर लापरवाही का परिचय दिया। परिणाम यह हुआ कि नियम विरुद्ध ढंग से दवाओं के परीक्षण का सिलसिला तेज होता गया। 2006-07 की तुलना में 2010-11 में दवाओं और टीकों के परीक्षण में जिस तरह 36 फीसद की वृद्धि हुई उससे साफ पता चलता है कि सरकारी एजेंसियां निष्क्रियता का परिचय दे रही थीं। इस निष्क्रियता के कैसे दुष्परिणाम सामने आए, यह इससे जाहिर होता है कि इंसानों पर दवाओं के गैर कानूनी परीक्षण के चलते 2007 से लेकर 2010 तक 1700 से अधिक लोग मारे गए। आखिर इन मौतों की जिम्मेदारी कौन लेगा? यह ठीक है कि अमेरिका और यूरोपीय देशों के मुकाबले भारत में इंसानों पर नई दवाओं का परीक्षण कहीं अधिक सस्ता है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं हो सकता कि भारतीयों के साथ भेड़-बकरियों सरीखा व्यवहार किया जाए। आज जब जानवरों पर भी दवाओं के परीक्षण कुछ निश्चित मानकों के साथ होते हैं तब फिर इसका कोई औचित्य नहीं कि भारत में यह काम चोरी-छिपे और मनमाने तरीके से हो।
दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी झेल रहे भोपाल के गैस पीड़ितों को क्या प्रयोगशाला में दवा परीक्षण का सामान बना दिया गया है? आरोप लगा है कि उनके मुफ्त इलाज के लिए खास तौर पर बनाए गए अस्पताल में बताए बिना उनपर नई दवाओँ का परीक्षण किया जा रहा है। ड्रग कंट्रोलर ऑफ इंडिया की एक सनसनीखेज रिपोर्ट में ये धोखा नजर आ रहा है। मौजूद दस्तावेज साफ बताते हैं कि 28 साल पहले हुई गैस लीक से बीमार लोगों को गिनी पिग्स बनाया जा रहा है, आंकड़े बता रहे हैं कि ड्रग्स ट्रायल के दौरान ऐसे 12 गैस पीड़ितों की जान चली गई और नियम के मुताबिक उनके मरने की जानकारी भी सरकार से लंबे वक्त तक छुपाई गई।
चौंकाने वाली बात ये है कि अमेरिकी रिकॉर्ड के मुताबिक भोपाल के गैस पीड़ितों पर मानसिक रोग से जुड़े ड्रग ट्रायल भी किए गए। यानी जहां सरकार के पास सिर्फ 7 ड्रग ट्रायल के रिकॉर्ड मौजूद हैं वहीं कागजात बताते हैं कि गैस पीड़ितों पर 13 ड्रग ट्रायल किए गए। दिलचस्प बात ये है कि ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया ने अब तक सिर्फ 3 ड्रग ट्रायल की जांच की है, ऑडिटिंग रिपोर्ट बताती है कि इन तीन ड्रग ट्रायल के दौरान 13 मरीजों की मौत हो गई। सबसे चौंकाने वाला आंकड़ा ये कि ड्रग ट्रायल के दौरान मारे गए 13 लोगों में से 12, जी हां 12 भोपाल गैस पीड़ित थे।
न्यायाधीशों ने कहा, सरकार गहरी नींद में है। यह जानकर हमें दुःख होता है कि ये कंपनियां हमारे देश के बच्चों को बलि का बकरा बना रहीं हैं। आप संसदीय समिति का भी सम्मान नहीं करते हैं जिसने कहा था कि ये कंपनियां इस तरह का धंधा चला रही हैं और आप हमें नियमों का प्रारूप दिखा रहे है।
सरकार इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा गैरकानूनी तरीके से किये जा रहे परीक्षणों के इस `धंधे’ को रोकने के लिए समुचित तंत्र स्थापित करने में विफल रही है।
स्वाभाविक ही कोई आसानी से इसके लिए तैयार नहीं होता। ऐसे में दवा कंपनियां चिकित्सीय परीक्षण की इजाजत देने वाले अधिकारियों, अस्पताल प्रशासन और डॉक्टरों से सांठगांठ करके धोखे से परीक्षण का रास्ता अख्तियार करती हैं। गरीब, अशिक्षित लोगों को लक्ष्य बनाया जाता है। विश्व-स्तर पर तय मानकों की कागजी खानापूरी की जाती है। धोखाधड़ी पर परदा डालने के इरादे से फर्जी दस्तावेज बनाए जाते हैं। मगर क्या चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े लोगों से इतनी नैतिकता की अपेक्षा भी नहीं की जा सकती कि वे मानसिक रोगियों, नवजात शिशुओं या किसी त्रासदी के जख्म झेल रहे लोगों को अपने लालच का शिकार न बनने दें!

“इस बारे में ज़िम्मेदारी का कुछ तो अहसास होना चाहिए…मानवों का इस्तेमाल गिनी पिग की तरह हो रहा है ये दुर्भाग्यपूर्ण है|”

विवेक मनचन्दा ,लखनऊ

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