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देश के लिए खतरा बनता नक्सलवाद

मेरे विचार
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एक तरफ देश की सीमा पर पाकिस्तानी सेना की दरिंदगी से जूझते देश को सीमा के अंदर नक्सलियों की घिनौनी हरकतों से भी दो-चार होना पड़ रहा है। गरीबों के हक की लड़ाई लड़ने का दिखावा करने वाले नक्सली अब इस हद तक नीचता पर उतर आए हैं कि वे मारे गए जवानों के पेट फाड़कर उनमें बम सिल दे रहे हैं ताकि और ज्यादा लोग मारे जा सकें। गत दिनों रांची में एक ऐसे ही जवान के शव के पेट में छिपाए गए ढाई किलोग्राम के बम को निष्क्रिय करके एक बड़ी तबाही तो टाल दी गई।
लेकिन नक्सलियों के इस पागलपन से रांची से लेकर दिल्ली तक सुरक्षा तंत्र हैरान-परेशान है। लातेहार जिले के अमवाटीकर जंगल में हुई मुठभेड़ में शहीद सीआरपीएफ जवान बाबूलाल पटेल के शव में बम छिपे होने की जानकारी रांची के अस्पताल में पोस्टमार्टम के ठीक पहले मिली। जब पोस्टमार्टम के लिए शहीद के शव से कपड़े हटाए गए तो डॉक्टरों को कुछ अजीब लगा। शक होने पर उन्होंने मेटल डिटेक्टर से जांच कराई तो पेट में विस्फोटक की जानकारी मिली। इसके बाद तो अफरातफरी मच गई और शव को बम निरोधक दस्ते के हवाले कर दिया गया है। शव से बम निकालने के बाद  घंटों मशक्कत के बाद उसे निष्क्रिय कर दिया गया। देश की इस तरह की यह पहली घटना है जिसमें नक्सलियों ने शहीद के पेट की छोटी आंत को काटकर निकाल वहां बम को प्लांट कर एक सशक्त सर्किट तैयार कर लिया। इस बम को उन्नत तकनीक के सर्किट से जोड़ा गया था, जो फटने के साथ ही बड़ी तबाही मचा सकता था। इसकी मारक क्षमता 11 मीटर से अधिक की थी। यह बम हल्के दबाव, खिंचाव या सर्किट पर सूर्य की रोशनी पड़ते ही फट जाता। बम निरोधक दस्ते ने बिना किसी नुकसान के बम को शरीर से बाहर निकाल लिया।
झारखंड के लातेहार में नक्सलियों ने अपने हाथों मारे गए जवानों के साथ जो कुछ किया उसके लिए क्रूरता और धूर्तता सरीखे शब्द भी अपर्याप्त हैं। यह दुष्टता की पराकाष्ठा है। आज के युग में इसकी कल्पना करना कठिन है कि कोई इस हद तक गिर सकता है। नक्सलियों ने सीआरपीएफ जवानों के अंग-भंग कर जिस तरह उनके शरीर में बम लगाए उससे उन्होंने खुद को घृणा का पात्र बना लिया है। यह बात और है कि नक्सलियों के अंध समर्थक और छद्म मानवाधिकारवादी उनकी भ‌र्त्सना करने के लिए तैयार नहीं। यह कहीं अधिक खतरनाक है, क्योंकि सिर्फ विकृत मानसिकता वाले स्वार्थी तत्व ही ऐसी बर्बरता पर मौन रह सकते हैं। इस पर गौर करें कि सीआरपीएफ जवानों के साथ राक्षसी व्यवहार उन नक्सलियों ने किया जो गरीबों के हक की लड़ाई लड़ने का दावा करते हैं और यह भी कहते हैं कि वे एक विचारधारा से संचालित हैं। यदि कोई विचारधारा इतनी घृणित और पतित हो सकती है तो फिर उसे विचारधारा कहना इस शब्द का अपमान है। क्या इससे भद्दा मजाक और कोई हो सकता है कि नक्सली यह कहते हैं कि वे समाज को समतामूलक बनाने के साथ हर किसी को उचित सम्मान दिलाना चाहते हैं? जिसे अपने विरोधी के शव के साथ नृशंस हरकत करने में संकोच नहीं उससे हीन और कोई नहीं हो सकता। अगर सोचने-समझने की तनिक भी क्षमता रखने वाला कोई इतनी हैवानियत दिखा सकता है तो उसे मनुष्य कहना कठिन है। ऐसा कृत्य जानवर भी नहीं करते। आखिर नक्सलियों और नियंत्रण रेखा पर भारतीय सैनिकों के सिर काटने वाले पाकिस्तानी सैनिकों में कोई भेद कैसे किया जा सकता है? दोनों की दरिंदगी एक जैसी है। विडंबना यह है कि हमारे नीति-नियंताओं ने अपनी अदूरदर्शिता और शिथिलता से खुद को ऐसी हालत में ला खड़ा किया है कि वे न तो सीमा पार के शत्रुओं का सामना कर पा रहे हैं और न ही सीमा के अंदर के शत्रुओं से। केंद्र और राज्य सरकारों के लिए यह गंभीर चिंता का विषय बनना चाहिए कि नक्सली न केवल दिन-प्रतिदिन क्रूर होते जा रहे हैं, बल्कि वे आधुनिक हथियारों और विस्फोटकों से लैस भी हो रहे हैं। इसकी ताजा मिसाल उनके वे बम हैं जो उन्होंने जवानों के शव में लगाए थे।
सरकारें काफी समय तक नक्सलवाद को कानून और व्यवस्था की समस्या कह कर इसकी भयावहता का सही अंदाजा लगाने में नाकामयाब रही हैं। या फिर सब कुछ पता होते हुए कारगर कदम नहीं उठाए गए हैं। नक्सल समस्या से निबटने के लिए आबंटिक धनराशि इतने वर्षों से पानी में बहाई जा रही है। आदिवासी क्षेत्रों में समावेशी विकास की बातें करने वाली सरकारों की कथनी और करनी के अंतर की उचित समीक्षा भी जरूरी है।नक्सलवाद के विचारधारात्मक विचलन की सबसे बड़ी मार आँध्र प्रदेश, छत्तीसगढ, उड़ीसा, झारखंड, और बिहार को झेलनी पड़ रही है।नक्सलवाद से जुझती सरकारों की हालत भी पतली हो रही है । विकास के लिए आरक्षित धनराशि का एक बड़ा हिस्सा पुलिस और सैन्य व्यवस्था के नाम पर व्यय हो रहा है जो अनुत्पादक है । इससे तरह-तरह की नया भ्रष्ट्राचार भी पनप रहा है । यदि खबरों पर विश्वास करें तो नक्सल प्रभावित लोगों के लिए प्रायोजित राहत के नाम पर फिर से बाजारवादी और लूट-घसोट में विश्वास रखने वाले ठेकेंदारों को नई उर्जा मिल रही है ।
केवल सरकारी आंकड़ों पर गौर करें तो पिछले पांच वर्षों के दौरान नक्सली हिंसा में 3,000 हजार से भी ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं। जिसमें आम नागरिकों के अलावा सुरक्षा बलों की भी एक लंबी फेहरिस्त है। नक्सली हिंसा की सबसे अधिक घटनाएं इससे प्रभावित चार राज्यों छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा और बिहार में हुई है। इस दौरान माओवादियों ने छोटी बड़ी करीब 6,500 से अधिक घटनाओं को अंजाम दिया है। प्रभावित राज्यों के अतिरिक्त अन्य राज्यों में भी नक्सलियों के पांव पसारने की खुफिया रिपोर्ट के बाद सरकार को इससे निपटने के लिए नई रणनीति बनाने पर मजबूर कर दिया है।अगर पिछले कुछ घटनाओं पर नजर ड़ाले तो स्पष्ट हैकि 2008 में नक्सल की कुल 1591 घटनाएं हुई 721 व्यक्ति मारे गए। हर वर्ष लगभग 1500 से ज्यादा घटनाएं घटित हो रही है और औसतन 700 से ज्यादा लोग मारे जा रहे है। फिर भी इसका हल नही निकल पा रहा है जबकि झारखण्ड़ में पुलिस इंसपेक्टर फ्रांसिस इदुवार का गला काटकर हत्या कर दी गई थी। सरकार तो सक्रिय है लेकिन राज्य सरकार के आगे नतमस्तक सी हो जाती है। आज पूरे देश में नक्सलियों की घटनाएं चरम पर है। जब सरकार आपरेशन ग्रीन हंट चला रही है तो नक्सली भी ऐसी क्रूर घटनाओं को अंजाम देकर उन्हे सीधे चुनौती दे रहे है। अगर इनकी चुनौती को कबूल नही किया गया या सरकार कठोर कदम नही उठाती है तो अंजाम भुगतते रहना होगा। जब माओपंथी देश के 13 से ज्यादा राज्यों में युद्धरत है वही करीब 50,000 नक्सली प्रशिक्षित है जो ऐसी रक्तरंजित घटनाओं को अंजाम देते है। यही नहीं सबसे ज्यादा छत्तीसगढ़ के 25000 गॉवों में इनकी सत्ता बरकरार है। दक्षिण की ओर आन्ध्र प्रदेश के बारंगल, करीमनगर, नालमल्ला, पालनाडु, उत्तरी तेंलगाना में इनका राज्य है। वहीँ बिहार में भी इनकी सत्ता के आगे राज्य सरकार बेबस है लगभग 38 जिलों में से 34 जिलों में इनका दबदबा है और ये वहां पर पूरी तरह सुरक्षित है। झारखण्ड़ में तो एक तिहाई से ज्यादा क्षे़त्र नक्सलियों के कब्जे में है ऐसा ही कुछ हाल उत्तर प्रदेश का भी है सोनभद्र मिर्जापुर सहित लगभग 800 गॉवों में नक्सलियों का कब्जा है। वहां के आदिवासी भी सरकार से ज्यादा नक्सलियों पर भरोसा करते है। फिर भी सरकार इनको तलाशने में असमर्थ है।नक्सलियों से निपटने के लिए सरकार द्वारा चलाया गया ऑपरेशन ग्रीन हंट से समस्या सुलझने की बजाए और पेचिदा ही हुआ है। इस ऑपरेशन में नक्सलियों को जितना नुकसान नहीं पहुंचा उससे अधिक उनके जवाबी हमले में सरकार ने अपने सिपाही खोए हैं। दंतेवाड़ा में नक्सलियों की वह लोमहर्षक घटना जिसमें अबतक के सबसे बड़े नक्सली हमले में 73 से ज्यादा सुरक्षाकर्मी मारे गए थे। बस्तर से लगा दंतेवाड़ा नक्सलियों के लिए सबसे अधिक सुरक्षित क्षेत्र है। जो घने जंगलों के साथ साथ पड़ोसी राज्य महाराष्ट्र, उड़ीसा और आंध्रप्रदेश की सीमा से लगा हुआ है। नक्सली इस जंगल के चप्पे-चप्पे से वाकिफ हैं जबकि सरकार ने उनसे लोहा लेने वाले वैसे सुरक्षाकर्मियों को मोर्चे पर लगा रखा है जिन्हें क्षेत्र की विशेष जानकारी नहीं होती है। ऐसे में वह माओवादियों द्वारा किए गए अचानक हमलों या गुरिल्ला हमलों का जवाब देने के लिए तैयार नहीं हो पाते हैं।

‘सत्ता बंदूक से निकलती है‘ के सिद्धांत पर यकीन करने वाले नक्सलवाद का जन्म 25 मई 1967 को पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी में ज़मीनदार और किसानों के दरम्यान जमीन के झगड़े से हुआ। जिसमें पुलिस की गोली से 11 किसानों की मौत हो गई थी। नक्सलवादी संघर्ष का नेतृत्व कानू सान्याल और चारू मजूमदार ने संभाला। 21 सितबंर 2004 को पीपुल्स वार ग्रुप और माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर के विलय के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) गठन हुआ। इनका सैनिक संगठन पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी (पीएलजीए) काफी मजबूत है। गरीबों और शोषितों को इंसाफ दिलाने का दावा करने वाले नक्सलियों को भारतीय लोकतंत्र पर विश्‍वास नहीं है। वे चुनावों का बहिष्कार करते हैं। बदलते वक्त के साथ नक्सलवाद का ढ़ांचा और विचारों में परिवर्तन हो चुका है। सरकारी भवनों को उड़ाना, स्कूल और स्वास्थ्य केंद्रों को नुकसान पहुंचाना इनका प्राथमिक लक्ष्य होता है। इसके पीछे इनका तर्क है कि स्कूलों में शिक्षा की बजाए सुरक्षा बलों को पनाह दी जाती है। माओवादी अपनी इन्हीं हरकतों के कारण धीरे धीरे आदिवासियों का विश्वास खोते जा रहे हैं। हर घर से एक बच्चे को जबरदस्ती नक्सली में भर्ती करने की पॉलिसी ने आग में घी का काम किया है।
नक्सलियों ने स्थानीय स्तर पर गरीबों के बच्चों, लड़कियों को अपनी फौज में शामिल कर लिया है और वे इनका शारीरिक, मानसिक सभी तरह से शोषण करते रहे हैं। नक्सलियों के कैद से भागी हुई कई लड़कियों की कहानी सुनने के बाद उनसे घृणा हो जाती है कि एक तरफ ये लोग जल, जंगल और जमीन के नाम पर अपने साथ कमजोर तबके के लोगों को आने को मजबूर करते हैं और दूसरी तरफ इनका शोषण करते हैं, देश के संशाधनों पर कब्जा करके अवैध हथियारों का जखीरा जमा करते हैं और देश के खिलाफ युद्ध का संचालन करते हैं। नक्सलियों से किसी का कोई भला नहीं होने वाला है। नक्सलियों का संबंध पाकिस्तान, चीन, नेपाल सहित कई देशों से है और वहां ये अपने कट्टर समर्थकों को हथियारों के प्रशिक्षण के लिए भेजते हैं।
नक्सली संगठन देश के खनिज संपदा और वनों उत्पादों पर कब्जा करने वाले संगठित गिरोह की तरह हो गए हैं। कुछ दिनों पहले ही उड़ीसा के मलकानगिरी में नक्सलियों ने वहां के जिलाधिकारी, आर.बी.कृष्ण के अपहरण के बाद जो शर्ते रखीं थीं उसके तहत अपने 700 साथियों की रिहाई के साथ एक बहुराष्ट्रीय कंपनी द्वारा संचालित जल संबंधी परियोजना के सभी अनुबंधों को तोड़ने की मांग की थी। इससे साफ जाहिर होता है कि नक्सली आंदोलन किस तरह से बेकाबू हो चुका है और वे अपनी मनमर्जी चलाना चाहते हैं।
नक्सलवादियों से पूरी कड़ाई से निपटने की जरूरत हैं। नक्सलवाद से आंतरिक सुरक्षा को बहुत ही गंभीर खतरा पैदा हो गया है। देश की सुरक्षा का एक बड़ा हिस्सा नक्सलवादियों से निपटने में खर्चा हो जाता है लेकिन एक समुचित नीति के अभाव और नक्सलवादियों से निपटने वाली पुलिस कंपनियों के स्थानीय लोगों और वहां की ज्योग्राफी की जानकारी के अभाव से वे नक्सलियों से लड़ाई में पिछड़ जाते हैं।
नक्सलियों का भारतीय संविधान में कोई विश्वास नहीं है। पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से चला ये आंदोलन अब गलत लोगों के हाथों में पड़ चुका है और आवश्यकता है कि कड़ाई से इससे निपटा जाए। कभी गरीबों के नाम पर शुरू हुआ यह आंदोलन अपने रास्ते से भटक चुका है।केंद्र सरकार नक्सल समस्या को राज्यों के कार्यक्षेत्र में बताकर इससे पल्ला झाड़ लेती है लेकिन इससे समस्या कमने के बजाए बढ़ती ही जा रही है। इसलिए जरूरी है कि सभी पक्ष मिलकर इस पर कार्यवाई करे और नक्सलियों के प्रति कोई ढ़िलाई नहीं बरती जाए।

विवेक मनचन्दा,लखनऊ

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