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राजनीति में परिवारवाद के लिए सिर्फ कांग्रेस पर निशाना क्यों ?

मेरे विचार
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डॉक्टर का बेटा डॉक्टर बन जाये, इंजीनियर का बेटा इंजीनियर बन जाये, वकील का बेटा वकील बन जाये, या अध्यापक का बेटा अध्यापक बन जाये तो इसे कोई भी परिवारवाद की संज्ञा नहीं देता है और ना ही किसी को सार्वजनिक रूप से जलन होती है. लेकिन अगर किसी राजनैतिक नेता का बेटा या बेटी राजनीति में घुस जाये तो सबको खलता है क्योंकि हमारे देश में राजनीति एक बहुत बढ़िया व्यवसाय बन गया है, जिसमें कोई शैक्षिक योग्यता नहीं चाहिए, ना ही उम्र का कोई तकाजा है| मजेदार बात यह भी है कि इसमें सेवा निवृत्ति यानि रिटायरमेंट की भी कोई उम्र तय नहीं है. कब्र में पैर लटकने तक नेता लोग कुर्सी मोह नहीं छोड़ पाते हैं।आजादी से पूर्व नेताओं ने बहुत संघर्ष किये, यातनाएं पाई. उनमें त्याग व बलिदान का जबरदस्त जज्बा था लेकिन इन 66 वर्षों में आते आते वह सारी जनसेवा की भावना लुप्त हो गयी है. बचे हुए अधिकतर पुराने नेता लोग अपने योगदान की कीमत वसूलने में कोई कसर नहीं करते हैं. जो गुजर गए उनकी अगली पीढियाँ भरपूर लाभ ले रही हैं।नई पीढ़ी भी जानती है कि इस लाभ के धन्धे में किसी प्रकार की हींग या फिटकरी लगाए बिना मलाई मिलती रहती है इसलिए राजनैतिक दलों के दलदल में सीढ़ियां तलाशने का काम स्कूल-कॉलेज से ही शुरू हो जाता है. यह भी सच है कि कई प्रतिभाशाली तो अपने जिद्दोजहद से प्रकाश में आते हैं और कुछ अपनी विशिष्ट जाति-बिरादरी का लाभ उठाते हैं, पर सबसे ज्यादा लाभ उठाने वाले वे हैं जो किसी नेता कुल में पैदा होते हैं। राजनीतिक बिसात में उनके नाम की कुर्सी पैदा होने से पहले से इन्तजार करती है।
विश्व के लोकतंत्रिक इतिहास में भारत ऐसा देश है, जहां परिवारवाद की जड़ें गहरी धंसी हुई है। यहां एक ही परिवार के कई व्यक्ति लंबे समय से प्रधानमंत्री और केन्द्रीय राजनीति की धुरी रहे हैं। आजादी के तुरंत बाद शुरू हुई वंशवाद की यह अलोकतानात्रिक परंपरा अब काफी मजबूत रुप ले चुकी है। राष्ट्रीय राजनीति के साथ-साथ राज्य और स्थानीय स्तर पर इसकी जड़े इतनी जम चुकी है कि देश का प्रजातंत्र परिवारतंत्र नजर आता है। इस परिवारतंत्र को कितना लोकतांत्रिक कहा जा सकता है, यह सवाल दिनों दिन बढ़ता जा रहा है।
इंदिरा गाँधी के सत्ता में आने के बाद उनसे विरोध रखने वालों ने सबसे पहले परिवारवाद का नारा बुलंद किया था क्योंकि उनके पिता जवाहरलाल बड़े नेता थे। इंदिरा जी के शहीद होने के बाद जब कांग्रेस पार्टी ने राजीव गाँधी को अपना नेता चुना तो विरोधियों ने इस नारे को और बुलंद किया। वे सत्ता में अनुभवहीन थे। उनके एक अन्तरंग साथी विश्वनाथ प्रतापसिंह ने उनको बोफोर्स के गुलेल से मार कर स्वयं सत्तानासीन हो गए पर ज्यादा दिन नहीं चल सके। राजीव गाँधी फिर से लोकप्रिय हो रहे थे, पर इसी बीच वे भी शहीद हो गए। कॉग्रेस पार्टी अपने को अनाथ महसूस करने लगी।सोनिया गाँधी की अनिच्छा के बावजूद पार्टी की कमान उनको संभला दी गयी। इतिहास गवाह है कि इस दौर में वह विदेशी मूल की होते हुए भी सभी भारतीय नेताओं पर भारी पडी हैं। विशेषता ये भी है कि उन्होंने खुद को पूरी तरह भारतीयता के रंग में रंग लिया है। वे भारतीय परिधान पहनती हैं और साफ़ साफ़ हिंदी बोलने लगी हैं। उनका पुत्र राहुल को सत्ता का युवराज कहा जाने लगा है। लेकिन जो लोग राजनैतिक कारणों से इस परिवार से राजनैतिक द्वेष रखते है अक्सर पानी पी पी कर इस खानदान को परिवारवाद के नाम पर गालियाँ देते रहते है। जबकि, कुछ वामपंथी दलों के नेताओं को छोड़कर लगभग सभी राजनीतिक दलों पर परिवारवाद के कलंक लगे हुए हैं।
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायमसिंह के परिवार के लगभग बीस छोटे बड़े सदस्य केन्द्र या उत्तर प्रदेश की कुर्सियों पर विराजमान हैं।पंजाब में अकाली दल के प्रकाशसिंह बादल के एक दर्जन पारिवारिक लोग कुर्सियों पर काबिज हैं।हरियाणा में स्वर्गीय देवीलाल के पुत्र चौटाला जी और उनके बेटे कुर्सियों पर हैं।कश्मीर में स्व. शेख अब्दुला के बाद उनके बेटे फारूख अब्दुला और उनके भी बेटे उम्र अब्दुला क्रमश: केन्द्र व राज्य में काबिज है।कश्मीर में ही विरोधी नेता महबूबा मुफ्ती अपने पिता भूतपूर्व केन्द्रीय गृह मन्त्री की विरासत की मालकिन हैं।हिमांचल के भारतीय जनता पार्टी के वर्तमान मुख्यमंत्री के पुत्र अनुराग ठाकुर राष्ट्रीय युवा मोर्चा संभाल रहे हैं।हरियाणा के दो भूतपूर्व बड़े नेता चौधरी बंशीलाल व भजनलाल के वंशज राजनीति में सक्रिय हैं।बिहार के राजद के बड़े नेता लालूप्रसाद ने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को चूल्हे से सीधे मुख्यमन्त्री बनाया। उनकी दो साले भी राजनीति मे अग्रणीय हैं।स्वर्गीय लालबहादुर शास्त्री जी के पुत्र, गोविन्दवल्लभ पन्त के पुत्र-पौत्र, मध्यप्रदेश के शुक्ला बन्धु अपने पिता की विरासत को लंबे समय तक संभालते रहे थे।उत्तराखंड के वर्तमान मुख्यमन्त्री अपने पिता हेमवतीनंदन की लीक पर हैं, उनकी बहन भी उत्तरप्रदेश में कॉग्रेस की कमान सम्हाले हुई है।चौधरी चरणसिंह के पुत्र एवँ पौत्र उनके बताए मार्ग पर प्रशस्त हैं।वर्तमान लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार, बाबू जगजीवनराम की बेटी हैं।हारे हुए राष्ट्रपति उम्मीदवार संगमा लोकसभा के अध्यक्ष रह चुके हैं। बेटे को आसाम मे राज्य विधान सभा में और बेटी को लोकसभा मे स्थान दिला कर आगे की रह तक रहे हैं।
मध्यप्रदेश के राज घराने वाले सिंधिया परिवार की पीढ़ियां राजनीति की अग्रिम पंक्ति में सक्रिय रही हैं।दक्षिण मे तमिलनाडू में करुनानिधि पुत्र एवं पुत्री, भतीजे व अन्य रिश्तेदारों के साथ बदनामी झेल रहे हैं।केरल मे स्वर्गीय करुणाकरण ने पुत्र मोह मे बहुत खेल किया, और पार्टी से विद्रोह किया।कर्नाटक में स्वनामधन्य हरदनहल्ली देवेगौड़ा के उखाड़ पछाड़ में उनके बेटे का मुख्यमंत्री बनना और हटाया जाना ज्यादा पुराना नहीं हुआ है।आन्ध्र में फिल्मों से आये राजनेता/मुख्यमन्त्री एन।टी।आर की विरासत में पत्नी लक्ष्मी और दामाद चंद्रबाबू नायडू के राजकाज की बातें अब भी लोगों को याद हैं।आंध्र में ही पूर्व मुख्यमन्त्री राजशेखर रेड्डी के पुत्र जगन के हक की लड़ाई केवल कुर्सियों के लिए चली है।झारखंड में शिबूसोरेन का व उनके बेटे का राजनीतिक दांवपेंच सिर्फ कुर्सी के लिए चलता रहा। वहां कोई सिद्धांतों की बात नहीं है।शिवसेना प्रमुख बाला साहब का पुत्र-पौत्र प्रेम और राजनीति में परिवारवाद का प्यारा उदाहरण है।एन।सी।पी। नेता शरद पवार की बेटी राज्यसभा में और भतीजा विधान सभा में उनके आदर्शों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।महिला आयोग की वर्तमान अध्यक्षा ममता शर्मा के ससुर लंबे समय तक राजस्थान में कई विभागों के मन्त्री रहे थे।राजस्थान के वर्तमान गृहमंत्री शांति धारीवाल के पिता भी अपने समय में बड़े नेता थे। इस प्रकार के तो अनेक बेटे अपने बाप या दादा की वसीयत को सम्हाले हुए है।दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित, हरीश रावत, यशपाल आर्य, भूपेंद्रसिंह हुड्डा, उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमन्त्री कल्याणसिंह, इन सबके बेटे लाइन में हैं। और किस किस का नाम लिया जाये, सैकड़ों खानदानी नेता जिनके रगों में सिर्फ राजनीति बहती है। वरुण गांधी और उनकी माँ मेनका अब भारतीय जनता पार्टी की अग्रिम पंक्ति में आ चुके हैं, पर इन पर परिवारवाद का आक्षेप सुनने को नहीं मिलता है क्योंकि विपक्षी होने का लाभ इनको प्राप्त है। हाँ, सोनिया गांधी सबके निशाने पर हैं इसलिए उनके और उनके बेटे राहुल पर परिवारवाद का ठप्पा लगाना बहुत सुविधाजनक है। एक प्रबुद्ध नेता बोल रहे थे कि “अब परिवारवाद कोई मुद्दा नहीं है। जनता बुद्धिमान है, अपना वोट देकर पार्लियामेन्ट में भेजती है। कल को मेरा बेटा या पोता चुनाव लड़ना चाहेगा तो कौन रोक सकता है, यह जनतंत्र है।”
भारतीय राजनीति में अगर परिवारवाद का विरोध करने वाले कोई राजनीतिज्ञ थे, तो वो राम मनोहर लोहिया थे | राम मनोहर लोहिया का मानना था की राजनीति में वंशवाद नहीं होना चाहिए जिसमे नेतृत्व की क्षमता हो वो आगे बढ कर राजनीति को थाम ले साथ ही जनता के हित में काम करे ना की अपने और अपने परिवार के लिए ये थे, समाजवाद के पुरोधा डॉ। राम मनोहर लोहिया के विचार जो आज उनके चेले मानने को तैयार नहीं | लोहिया के सबसे करीबी चेलो में शुमार रहे और खाटी समाजवाद की कोख से पैदा हुए धरतीपुत्र मुलायम सिंह यादव ने लोहिया के समाजवाद की धज्जिया उडा दी, आज मुलायम सिंह यादव ने जनता को को अपने समाजवाद का ऐसा चेहरा दिखाया है की, परिवारवाद को बढावा देने वालो में मुलायम के आगे कोई नहीं टिकता |अभी तक वंशवाद को लेकर नेहरू और करूणानिधि के परिवार ही बदनाम थे पर इधर दो परिवारों ने राजनीति को पेशे की तरह अपने पारिवारिक लोगो को हस्तानांतरित किया वो है, पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल और इस नए क्लब में शामिल होने वाले समाजवादी मुलायम सिंह यादव जिन्होंने परिवारवाद का राजनीतिकरण कैसे किया जाता है इसकी नई परिभाषा ही गढ़ दी |
मुलायम सिंह यादव वैसे तो पहले से ही परिवारवाद को बढावा देने के लिए बदनाम रहे है , पर जब से इन्होने प्रदेश की राजनीति अपने बेटे अखिलेश यादव को सौपी तब से उनके विरोधी ही क्या उनकी पार्टी के सहयोगी भी दबे जबान मुलायम सिंह यादव पर वंशवाद का आरोप लगाते है | वजह भी साफ़ ही दिखती है, मुलायम सिंह यादव के परिवार में उनको मिलाकर कुल 4 लोग लोकसभा, राज्यसभा की शोभा बड़ा रहे है, जिसमे अभी हाल में ही शामिल हुई उनकी बहू डिम्पल यादव भी है, जो इस राजनीतिक परिवार की सबसे नई सदस्य है | आज से 50 साल पहले जब जवाहर लाल नेहरू ने अपने प्रधानमन्त्री रहते हुए अपनी बेटी को कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया था, उस समय थोड़े हो हल्ले के बाद परिवारवाद का रक्तबीज भारतीय राजनीति में बो दिया गया था। पर किसे पता था की नेहरू के डाले गए बीज आगे चल कर हमारी राजनीति और लोकतंत्र कुछ परिवारों की जागीर बन कर रह जायेंगे? अब परिवारवाद के लिए अकेले दोषी कांग्रेस रही नहीं। कांग्रेस और नेहरू खानदान की यह बीमारी लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों में फैल चुकी हैं। कांग्रेस तो नेहरू परिवार की क्षत्रछाया से आज तक बाहर नहीं निकल पाई |
पर लोहिया के समाजवाद का क्या जिसपर खुद उन्ही के चेलो ने दाग लगा दिया जिस समाजवाद का सपना डॉ। लोहिया ने देखा था, वह भी पूरी तरह से बिखर चुका है। दुर्भाग्य यह है कि डॉ।लोहिया ने अपने समाजवाद के सपने को पूरा करने के लिए जिन कंधों और जिस राजनीतिक धारा को खड़ा किया था? आज उन्ही डॉ। लोहिया के शिष्य समाजवाद के नाम पर परिवारवाद बढ़ाने और स्थापित करने में लगे हुए हैं।
मुलायम सिंह यादव ने पहले अपने बेटे अखिलेश यादव को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनवाया और अब अखिलेश यादव द्वारा खाली किये गये कन्नौज लोकसभा से सीट से अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव चुनाव लड़े बिना निर्विरोध सांसद बन चुकी है । लालू प्रसाद यादव अपनी जगह अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनवाने का कारनामा दिखा चुके हैं। आज न कल लालू का बेटा बिहार में लालू का राजनीति में उत्तराधिकारी बनेगा।
डॉ. लोहिया इस खतरे को पहचानते थे। पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक वर्ग के हिमायती डॉ. लोहिया जरूर थे। पर उन्होंने यह भी कहा था कि जब उंची जातियों से खिसक कर राजनीतिक सत्ता पिछड़ी या फिर दलित जातियों के बीच आयेगी तब भी उनका सत्ता संधर्ष समाप्त नहीं होगा । सवर्ण जातियों से खिसक कर पिछड़ी और दलित संवर्ग के पास सत्ता जरूर आयेगी पर उस सत्ता का चरित्र और मानसिकता भी सवर्ण सत्ता से बहुत ज्यादा अलग या क्रांतिकारी नहीं होगा।
यह सब पिछड़ी और दलित राजनीति में साफतौर पर देखा गया और ऐसी राजनीतिक स्थिति के लिए जिम्मेदार भी खुद यही जातिया है । समाजवाद के नाम पर बिहार में लालू-राबड़ी ने 15 सालों तक राज किया। अब प्रश्न ये उठता है की लालू-राबड़ी राज में संपूर्ण पिछड़ी जाति का कल्याण हुआ या नहीं ये जग जाहिर है। सिर्फ कल्याण हुआ तो यादव जाति का । यादव जाति के अपराधी-गुंडे सांसद-विधायक बन गये। लालू जब चारा घोटाले में जेल गये तब उनकी पत्नी राबड़ी देवी मुख्यमंत्री बना दी गयी। लालू का पूरा ससुराल ही विधानसभा और संसद में चला गया। साधु यादव-सुभाष यादव नामक लालू के दो साले एक साथ संसद के सदस्य बन गये। लालू-राबड़ी का बिहार में नाश हुआ और नीतिश कुमार के हाथों में सत्ता आयी |
मुलायम सिंह यादव अपने आप को लोहिया की विरासत मानते हैं। मुलायम सिंह यादव की पार्टी का नाम ही समाजवादी पार्टी है। उत्तर प्रदेश में समाजवाद के नाम पर मुलायम सिंह यादव ने अपनी राजनीतिक शक्ति बनायी और पूरी पिछड़ी जाति की गोलबंदी के विसात पर सरकार बनायी। पर सत्ता में आने के साथ ही मुलायम सिंह यादव ने अपनी यादव जाति और अपने परिवार को आगे बढ़ाने के लिए शतरंज के मोहरे खड़े करते रहे। मुलायम सिंह के एक भाई रामगोपाल यादव संसदीय राजनीति में पहले से ही स्थापित हैं और उत्तर प्रदेश में उनके एक भाई शिवपाल यादव मायावती सराकार में विपक्ष के नेता थे,इस समय अखिलेश सरकार में नंबर तीन की हैसियत रखते है । मुलायम सिंह यादव ने खुद मुख्यमंत्री नहीं बने पर वे अपने दल के अन्य बड़े नेताओं को नजरअंदाज कर अपने बेटे अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनवा दिया। अखिलेश यादव न सिर्फ मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हैं बल्कि मुलायम सिंह यादव के उत्तराधिकारी भी बन चुके हैं। अब सपा की असली कमान अखिलेश यादव के हाथो में है। सपा में अब कौन अखिलेश यादव को चुनौती देगा? राजनीति में एक यह भी बात खड़ी हुई है कि मुलायम सिह यादव की नजर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर है। वह अगले लोकसभा चुनाव परिणाम की स्थितियों का लाभ उठाकर प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं। यानी की देश और देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश पर एक ही परिवार का राज? ऐसा सपना मुलायम सिंह यादव का है जबकि डॉ।लोहिया का सपना कुछ और था |
एक समय लोहिया के शिष्य लालू, मुलायम, शरद यादव आदि कांग्रेस के परिवारवाद के खिलाफ आग उगलते थे और नेहरू खानदान के परिवारवाद को देश के लिए घातक बता कर जनता का समर्थन हासिल करते थे। लेकिन जब इनके पास सत्ता आयी तब ये खुद ही परिवारवाद को बढ़ावा देने और परिवारवाद पर आधारित राजनीतिक पार्टियां खड़ी करने में लग गये। यह स्थिति सिर्फ समाजवादियो और समाजवाद पर आधारित राजनीतिक दलों मे ही नहीं हैं।राजनीति में मुख्यमंत्री का बेटा मुख्यंमत्री होगा? मंत्री का बेटा मंत्री होगा?सांसद का बेटा सांसद होगा और विधायक का बेटा विधायक होगा? ऐसी स्थिति में आम लोगों की राजनीतिक हिस्सेदारी कैसे सुनिश्चित होगी।राजनीतिक पार्टियां संघर्षशील और ईमानदार व्यक्तित्व को संसद-विधान सभाओं में भेजने से पहले ही परहेज कर रही हैं। कांग्रेस से उम्मीद भी नहीं हो सकती है कि वह परिवारवाद से दूर होगी। पर समाजवादियों और समाजवादी धारा की राजनीतिक दलों पर हावी परिवारवाद काफी चिंताजनक है। लोहिया की विरासत को मानने वाले लालू, मुलायम, शरद यादव, से यह जरूर पूछा जाना चाहिए कि परिवारवाद खड़ा करना कहां का समाजवाद है। क्या राममनोहर लोहिया ने परिवारवाद का सपना देखा था?
जिस दिन से प्रदेश में समाजवादी सरकार बनी है उसी दिन से निगमों के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष बदले जा रहे हैं इनमें अधिकतर वो नेता हैं जो चुनाव में तो नहीं उतरे लेकिन पार्टी के लिए तन मन और ‘धन’ से सहयोग करते रहे हैं| इसी तरह मुलायम अपने परिवार में युवा होते सदस्यों को भी राजनीति में उतार रहे हैं| इसी क्रम में अगला नाम है शिवपाल सिंह यादव के पुत्र आदित्य यादव का| यूपी कोआपरेटिव फेडरेशन लिमिटेड (पीसीएफ) के सभापति के निवार्चन की प्रक्रिया आरंभ हो गई है। आगामी 12 फरवरी को सभापति का चुनाव होना है। बुधवार को निदेशक मंडल के सदस्यों के चुनाव के लिए नामांकन पत्र दाखिल किया गया। अन्य दावेदार न होने से निदेशक मंडल के लिए 11 लोग निर्विरोध चुन लिए गए हैं। इनमें आदित्य यादव भी शामिल हैं, अब यदि आदित्य ने नामांकन किया है तो उनको लाल बत्ती मिलना तय है क्योंकि सभापति को राज्यमंत्री का दर्जा मिलता है।
निर्विरोध चुने गए सदस्य इस प्रकार है शिवपाल सिंह यादव के पुत्र आदित्य, बनवारी यादव के पुत्र आशीष, छोटे सिंह यादव के पुत्र सुधीर, चन्द्रपाल सिंह यादव के पुत्र यशपाल व सपा सांसद धर्मेन्द्र यादव के रिश्तेदार संजय यादव, जगदीश सिंह, विमला यादव, अजय मलिक, जितेन्द्र यादव, गाजीपुर के विजयशंकर राय। वहीँ लोकसभा चुनाव की तैयारी में जुटे मुलायम ने अक्षय यादव को फिरोजाबाद लोकसभा सीट से टिकट दिया है। अक्षय यादव सपा मुखिया मुलायम सिंह के भतीजे और पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव राम गोपाल यादव के पुत्र हैं। इस प्रकार उत्तर प्रदेश की राजनीति के सबसे शक्तिशाली यादव परिवार के आदित्य 8वें सदस्य हैं जिन्होंने सक्रिय राजनीति में दस्तक दी है।
जो भी हो इंडिया अगेंस्ट करप्शन और इसके नेता अरविंद केजरीवाल का हमें आभारी होना होगा कि उन्होंने भारतीय राजनीति में फैले व्यापक भ्रष्टाचार को एक बार फिर से राजनीतिक मुद्दा बनाने के अलावा, जो बड़ा काम किया वह है परिवारवाद की जड़ पर जबर्दस्त चोट करने का। वंशवाद एक अर्से से भारतीय राजनीति का नासूर बन चुका है जिसने पूरी व्यवस्था को पंगु कर दिया है। इस के लक्षण कश्मीर से कन्याकुमारी तक निर्बाध फैल और फल-फूल रहे हैं। वंशवाद की इस बीमारी को महामारी बनाने की पूरी जिम्मेदारी नेहरू-गांधी परिवार की है।
इस परिवार प्रेम को दूसरे कोण से देखा जाना जरूरी है। यूपीए की सरकार आज जिस लकवे का शिकार नजर आ रही है उसके मूल में यही है। यूपीए के सबसे बड़े घटक कांग्रेस पार्टी ने, जिस व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनाया और जो पिछले आठ वर्ष से देश की बागडोर संभाले है, वह स्वयं एक भी चुनाव नहीं जीता है। वह जनता की नब्ज नहीं पहचानता है। उसका कोई जनाधार नहीं है। उसकी जनता के प्रति कोई जवाबदेही नहीं है। अगर जवाब देही है तो सिर्फ गांधी परिवार के प्रति। प्रश्न है आखिर वह क्यों है? क्या पार्टी में – सोनिया गांधी के विदेशी होने की सीमा के कारण उम्मीदवारी से हट जाने के बाद – कोई दूसरा नेता नहीं था? आखिर क्यों प्रणव मुखर्जी या अर्जुन सिंह या फिर शरद पवार जैसों की अनदेखी कर मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया गया? इसका जवाब एक और प्रश्न है कि आखिर क्यों लालू यादव ने राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनवाया? मूलत: इसलिए कि सत्ता पर कब्जा बना रहे, फिर चाहे वह तात्कालिक रूप से ही क्यों न हो, जैसा कि लालू यादव के साथ हुआ। अगले चुनावों में उनकी पार्टी ही हार गई। लगभग इसी स्थिति के निकट आज कांग्रेस पहुंच चुकी है। उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल के लोकसभा के उपचुनाव इसका उदाहरण हैं। विजय बहुगुणा के बेटे की हार और प्रणब मुखर्जी के बेटे का हार से बाल-बाल बचना इस बात का संकेत है कि लोग परिवारवाद से आजीज आते जा रहे हैं। महत्त्वपूर्ण यह है कि लोकतंत्र के लिए परिवारवाद घातक है और नेहरू-गांधी के परिवारवाद ने भारतीय लोकतंत्र को मखौल में बदल दिया है।
राहुल गांधी में न तो अपनी दादी-सी हिम्मत है और न ही परनाना-सी आदर्शवादिता पर वह मां की आड़ में राजनीति की डोर खेंचने से बाज नहीं आ रहे हैं। इधर मंत्रीमंडल के विस्तार में उनका हाथ साथ नजर है। इसे कुल मिला कर अवांछित और असंवैधानिक हस्तक्षेप ही कहा जाएगा। वह निर्णायक तौर पर अपनी स्थिति – इधर या उधर – स्पष्ट क्यों नहीं कर रहे हैं जिससे भारतीय राजनीति अपना स्वाभाविक रास्ता अपना सके। लगता है वह कांग्रेस के मोहम्मदशाह रंगीले या बहुत हुआ तो अपने ढिलमुल रवैये के कारण, बहादुरशाह जफर साबित होने जा रहे हैं।
खतरनाक बात यह है कि कांग्रेस परिवारवाद को सप्रयास बढ़ाती है। उत्तराखंड का बहुगुणा परिवार इसका ताजा उदाहरण है। राज्य में विजय बहुगुणा जैसे आदमी, जिसकी न्यायाधीश के रूप में छवि कोई बहुत अच्छी नहीं रही हो, न जिसका कोई जनाधार हो और न ही अनुभव, उसे मुख्यमंत्री बनाना या उत्तरप्रदेश में उनकी बहिन रीटा बहुगुणा जोशी को, जो न अच्छी नेता हैं और न ही अच्छी संगठनकर्ता, कांग्रेस की कमान सौंपना और फिर उनकी अगली पीढ़ी के साकेत को, जिसका एकमात्र राजनीतिक अनुभव पिता के विधान सभा क्षेत्र में प्रचार करना रहा हो, रीयल एस्टेट कंपनी से उठा कर सांसद का टिकट देना क्या बतलाता है? इस व्यवहार के दो संभावित कारण हो सकते हैं। पहला, इस तरह से गांधी परिवार अपने परिवारवाद को सही ठहराता है और दूसरा यह कि तख्त पर बैठाया गया ऐसा व्यक्ति, भविष्य का खतरा न बन, अपनी असुरक्षा में गांधी परिवार का आजीवन दरबारी बना रहता है।
अरविंद केजरीवाल के उदय और उदारीकरण के परिणामस्वरूप भ्रष्टाचार के, पार्टियों से परे, चरम पर पहुंच जाने के बावजूद, कहना मुश्किल है कि पिछले साठ वर्ष से चले आ रहे कांग्रेस पोषित वंशवाद का यह अंतिम दौर होगा। निश्चय ही केजरीवाल ने गांधी परिवार पर कुछ वैसी ही चोट की है जैसी कि पिछली सदी के अंतिम दशक में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने, या उससे पहले राममनोहर लोहिया ने। इन सब प्रयत्नों ने नेहरू-गांधी परिवारवाद को काफी हद तक कमजोर तो किया, पर मिटा नहीं पाया। इसे तब ही खत्म किया जा सकता है, जब कि जमीनी स्तर पर संगठित तरीके से काम हो। महानगरों में बैठ कर मीडिया के हथियार से तख्ता पलट संभव नहीं है। यह भी नहीं लगता कि प्रमुख विरोधी दल भाजपा जो स्वयं भ्रष्टाचार और नेतृत्व कब्जाने के संघर्ष से ग्रसित है इसको मुद्दा बना पाएगा। संसदीय वाम अपने सबसे खराब दौर से गुजर रहा है। अपने खुलासों और बातों में अरविंद चाहे जितने भी घातक नजर आएं, इतने विशाल और जटिल देश में चुनाव लडऩा किसी महायुद्ध से कम नहीं है। संगठन और अनुभव इसमें निर्णायक भूमिका निभाते हैं। यह भी देखना होगा कि क्या, अगर मध्यावधि चुनाव नहीं होते हैं तो, वह इतने लंबे समय तक भंडाफोड़ का अपना यह टैंपो बनाए रख पाएंगे।
वंशवाद का आरोप भी कांग्रेस पर उतना धारदार नहीं बैठ रहा था क्योंकि, राज्यों में बीजेपी नेताओं के पुत्र-पुत्रियां भी उसी आधार पर आगे बढ़ने लगे थे। और, पार्टी विद द् डिफ्रेंस की छवि बीजेपी को संभालना इससे भी मुश्किल हो रहा था कि वहां गांधी नाम के बिना सर्वोच्च तक नहीं पहुंचा जा सकता तो, यहां नागपुर का आशीर्वाद इसके लिए परम आवश्यक शर्त है। ये सच है कि नितिन गडकरी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और सरसंघचालक मोहनराव भागवत के आशीर्वाद ने ही 11 अशोक रोड पर कुर्सी संभालने का मौका दिया। ऐसे में वंशवाद के लिए सिर्फ कांग्रेस की आलोचना करना तर्कसंगत नहीं लगता है ।

विवेक मनचन्दा,लखनऊ

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