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भ्रष्टाचार मुक्त समाज की कल्पना सिर्फ़ एक ख्वाब

मेरे विचार
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जिस आंदोलन ने देश-विदेश में खासकर भारतीय नागरिकों के मानस को आंदोलित कर दिया था, लोकपाल के मुद्दे पर जिस आंदोलन ने भ्रष्टाचार और आलसी प्रशासन के खिलाफ एक अलख, एक उम्मीद जगाई थी, जिस आंदोलन की सामूहिक ताकत के सामने सत्ता और संसद विनम्र हो गई थीं और अंततः लोकपाल बिल पारित होकर एक वैकल्पिक व्यवस्था के आसार स्पष्ट हो गए थे, अन्ना और केजरीवाल टीम के किन मतभेदों ने उस आंदोलन को किरच-किरच कर दिया? क्या अब अन्ना के लोकपाल की कोई संभावना शेष है? ऐसे कई सवालों के मद्देनजर देश की वह जनता निराश हो सकती है,जो भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की एक उम्मीद थी।टीम अन्ना के पूर्व सहयोगी स्वामी अग्निवेश के एक सनसनीखेज बयान ने खलबली मचा दी है। उन्होंने इंडिया न्यूज़ चैनल पर एक इंटरव्यू में कहा कि अरविंद केजरीवाल चाहते थे कि अनशन के दौरान अन्ना हजारे की मौत हो जाए और इसका फायदा आंदोलन को पहुंचे। अग्निवेश ने कहा कि अरविंद ने उनसे कहा था कि अन्ना का बलिदान आंदोलन के लिए अच्छा रहेगा।उधर, अरविंद केजरीवाल ने स्वामी अग्निवेश के आरोपों को हास्यास्पद करार दिया है। केजरीवाल ने ट्विटर कर कहा, ‘कुछ मीडिया वाले स्वामी अग्निवेश के हवाले से कह रहे हैं कि मैं अन्ना को ‘मारना’ चाहता था। क्या इससे हास्यास्पद चीज कुछ और हो सकती है। क्या स्वामी अग्निवेश ने कुछ सबूत दिए हैं?, नहीं। तो फिर क्या उनसे यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि वे इस बारे में कुछ सबूत दें? अन्ना पर एक नहीं 100 जिंदगी कुर्बान।’ अग्निवेश के इस दावे पर सवाल उठाने वालों की भी कमी नहीं है। यह जगजाहिर है कि केजरीवाल और अग्निवेश में मतभेद आंदोलन के शुरुआती दिनों से ही हैं।
अग्निवेश के मुताबिक अप्रैल 2011 में जब जंतर-मंतर पर जन लोकपाल आंदोलन शुरू हुआ तो वह अन्ना को आमरण अनशन पर बैठाने के खिलाफ थे। अग्निवेश ने कहा, ‘जब मुझे पता चला कि अन्ना आमरण अनशन करने वाले हैं, तो मैंने अरविंद से सवाल किया था कि वह अन्ना जैसे बुजुर्ग को आमरण अनशन पर क्यों बैठा रहे हैं? इस पर अरविंद ने कहा कि उनका बलिदान हो जाता है तो इससे क्रांति होगी। वह मर जाएंगे तो कोई बात नहीं, यह आंदोलन के लिए अच्छा रहेगा।’
अग्निवेश के मुताबिक जंतर-मंतर पर अनशन के दौरान सरकार द्वारा सारी मांगें मंजूर करने के बाद भी अरविंद केजरीवाल अन्ना को पांच-सात दिन और अनशन करने के लिए उकसाते रहे। उन्होंने कहा, ‘आंदोलन की शुरुआत से ही केजरीवाल बहुत बड़ी महत्वकांक्षा लेकर चल रहे थे। उन्हें लग रहा था कि अन्ना के कंधे पर रखकर ही वह अपनी बंदूक चला सकते हैं। केजरीवाल को लगता था कि अन्ना की छवि का फायदा उठाकर वह लोगों के बीच अपनी बड़ी इमेज बना सकते हैं। इसी के चलते उन्होंने अन्ना को पुणे से लाकर जंतर-मंतर पर बिठाया।’अग्निवेश के मुताबिक अरविंद केजरीवाल चाहते थे कि अन्ना अपना आंदोलन जारी रखें। आंदोलन के दौरान सरकार द्वारा सारी मांगें मान लेने के बावजूद अन्ना अरविंद के उकसावे पर अनशन पर डटे रहे। उन्होंने जब अरविंद ने बात की तो उन्होंने कहा कि अन्ना अनशन नहीं तोड़ेंगे अभी पांच-सात दिन अनशन और जारी रखेंगे। इस बात का तब उन्हें बहुत बुरा लगा था। उन्हें तब लगा कि यह अनशन किसी और मकसद से करवाया जा रहा है। अग्निवेश के मुताबिक किरण बेदी को भी यह बात बुरी लगी थी।
स्वामी अग्निवेश ने कहा कि उन्होंने इसके बाद टीम अन्ना के सदस्य शांति भूषण और प्रशांत भूषण से बात की। वह भी इस बात पर राजी थे कि अब अन्ना को अनशन तोड़ देना चाहिए। उन्होंने अन्ना को जब इस बारे में समझाया तो वह नहीं माने। इस पर शांति भूषण अन्ना पर बरस पड़े। प्रेस कॉन्फ्रेंस कर पोल-पट्टी खोलने की धमकी के बाद ही अन्ना अनशन तोड़ने पर राजी हुए थे।
आंदोलन से शुरुआत से जुड़े अरविंद गौड़ ने अग्निवेश के आरोप को खारिज कर दिया है। उन्होंने कहा कि ऐसा सोचना भी पाप है कि कोई अन्ना को नुकसान पहुंचाना चाहता था। अगर कोई ऐसा कह रहा है तो यह गलतबयानी है। उन्होंने कहा कि आंदोलन के दौरान जो भी हुआ वह स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी। सरकार के रवैये के हिसाब से ही फैसले लिए गए और इस बात पर विचार किया गया कि अनशन कब और कितने दिनों का हो। उनका कहना एकदम गलत है कि कोई अन्ना जी को मारना चाहता था। अग्निवेश का बयान पूरी तरह से बेबुनियाद है।
सूत्रों का कहना है कि इस तरह की बातों से अरविंद केजरीवाल के साथ ही अन्ना से जुड़े कई लोगों को असहजता का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे सवालों का जवाब देते भी नहीं बन रहा है।केजरीवाल के करीबी सूत्रों का कहना है कि यह अग्निवेश की कुंठा है, जो इस तरह से निकल रही है।
वैसे अगर अग्निवेश की बात करें तो आंदोलन के शुरुआती दिनों में ही उन्हें आंदोलन के लिए नुकसानदायक बता कर टीम अन्ना से बाहर कर दिया गया था। उन पर अन्ना की टीम में जासूसी कर खबरें सरकार तक पहुंचाने का इल्जाम लगा। उनकी एक ऑडियो रिकॉर्डिंग सामने आई, जिसमें उन्हें किसी संदिग्ध से बात करते दिखाया गया। तब भी अग्निवेश ने केजरीवाल पर तानाशाही के इल्जाम लगाए थे और उन्हें अन्ना हजारे के लिए नुकसानदायक बताया था।
लेकिन यह सवाल उस आम आदमी की निराशा को भी प्रदर्शित करता है जिसके मन में भ्रष्टाचार के खात्मे की उम्मीद जगी थी। हालाँकि यह सच है कि बड़ी लड़ाई लड़ने में वक्त लगता है और इस दरम्यान हमें कई पड़ाव भी पार करने पड़ते हैं। लेकिन भ्रष्टाचार नामक जिस घुन की दवा माँगने अन्ना हजारे आए थे उसके अंजाम तक पहुँचने से पहले ही जिस तरह से अन्ना के सहयोगियों में वैचारिक मतभेद सामने आ रहा है उसने इस लड़ाई को पीछे ज़रूर धकेला है। सवाल है सदियों से दबे इस जनाक्रोश को सही दिशा देने में कामयाबी हासिल क्यों नहीं हो सकी? इस सवाल पर अन्ना और उनके सहयोगियों को भी आत्ममंथन की ज़रूरत है। दुनिया का इतिहास गवाह है कि समय-समय पर जनता का आक्रोश जनउभारों के रूप में सामने आता रहा है। शासक वर्ग के खिलाफ़ भ्रष्टाचार के बहाने उपजे इस आक्रोश को भी एक दिशा देने की ज़रूरत थी जो व्यवस्था परिवर्तन के लिए ज़मीन तैयार करती। लेकिन इस लड़ाई की अगली कतार में शामिल लोग भी वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था के उस कुटिल नीति का शिकार हो गए जिसमें व्यक्तिवाद प्रमुख है। अरविन्द केजरीवाल, किरण बेदी और खुद अन्ना को हमने अपने ऊपर लगे आरोपों के जवाब में आपा खोते हुए देखा है। अन्ना और उनके सहयोगियों का ज्यादातर वक्त अब यह सफाई देने में बीतता है कि हमारे बीच कोई मतभेद नहीं है। ऐसे में आम निरीह जनता के मन में ऐसे सवाल उठना जायज है। अन्ना टीम के प्रमुख सदस्य प्रशांत भूषण के कश्मीर पर दिए विवादास्पद बयान के बाद से उभरा मतभेद हर दिन एक नए रूप में सामने आ रहा है। इस मतभेद ने आम लोगों के मन में बनी साफ़ छवि को भी आघात पहुँचाया है। जिसे समय रहते समझने की ज़रूरत है।किसी भी लड़ाई का आधार यह नहीं हो सकता कि उस टीम में शामिल लोग अलग-अलग धर्मों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे या नहीं। या फिर वह किस जाति से सम्बन्ध रखते हैं। व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई विचारों के आधार पर लड़ी जाती है।
इस तरह की लड़ाई पहली बार लड़ी जा रही है ऐसी बात नहीं है। 1974 का छात्र आंदोलन इससे कहीं ज्यादा बड़ा और व्यापक पैमाने पर हुआ था। उस वक्त भी मुद्दा भ्रष्टाचार था। लेकिन सम्पूर्ण क्रांति का जो नारा जयप्रकाश नारायण ने दिया उसे सही ढंग से परिभाषित नहीं किया जा सका था। जिसका हश्र आज हमारे सामने है। अन्ना के आंदोलन की तुलना जेपी के आन्दोलन से करना उचित नहीं है लेकिन इतिहास की गलतियों से सीख लेना भी ज़रुरी है। किसी भी आंदोलन को जनांदोलन सिर्फ़ इसलिए नहीं माना जा सकता क्योंकि उसमे बड़े पैमाने पर लोग शामिल हैं। दरअसल उस भीड़ में वैचारिक रूप से मजबुत और राजनीतिक चालों की गहरी समझ रखनेवाले कितने लोग हैं यह समझना भी ज़रुरी है। वैचारिक रूप से लोगों को मजबूत बनाने की ज़िम्मेदारी उन लोगों पर होती है जो आंदोलन के अगली कतार में शामिल होते हैं लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो पा रहा है। हालाँकि यह नहीं कहा जा सकता कि अन्ना का आंदोलन फेल हो गया लेकिन बिखर रहे इस आंदोलन की कड़ियों को जोड़ना ज़रुरी है। अन्यथा भ्रष्टाचार मुक्त समाज की कल्पना सिर्फ़ एक ख्वाब बनकर ही रह जायेगी।
पिछले दिनों पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान उन्होंने जनतंत्र मोर्चा के गठन की घोषणा की थी । उन्होंने बताया कि इस मोर्चे का लक्ष्य जनता की समस्याओं के लिए संघर्ष करना होगा। लेकिन जिस अन्ना की एक आवाज पर दिल्ली में भारी भीड़ उमड़ जाया करती थी। उसी अन्ना के नए आंदोलन को लेकर पटना के गांधी मैदान कुछ खास उत्साह नहीं दिखा। रैली में लोगों की संख्या उम्मीद से काफी कम दिखी।अन्ना काफी दिनों के बाद किसी रैली को संबोधित करनेवाले थे तो इस बात की आशा थी कि रैली में काफी संख्या में लोग भाग लेंगे। लेकिन उम्मीद के मुताबिक भीड़ नहीं जुटी। मैदान का बड़ा हिस्सा खाली ही था। अन्ना के साथ ऐसा इससे पहले भी हो चूका था जब उन्होंने दिल्ली की बजाय मुम्बई में अनशन का ऐलान किया था। तब मुम्बई में उनको वह सफलता नहीं मिली थी जो कि दिल्ली में उन्हें मिली थी।
लोकपाल के मुद्दे पर कभी एक हुई टीम अन्ना इसी मुद्दे पर बिखरती भी जा रही है। पहले अरविंद केजरीवाल और अब किरण बेदी ने अन्ना से अलग रुख किया है। गौरतलब है कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में अन्‍ना के अहम सहयोगी रहे अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण भी उनसे अलग होकर अपना राजनीतिक दल बना चुके हैं।
तंत्र परिवर्तन व भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान में अरविंद, स्वामी रामदेव और अन्य सभी लोगों के बीच एकता जरूरी थी पर ऐसा न होने से आंदोलन अंजाम तक नहीं पहुंच सका। हम सभी को संगठित रहने की जरूरत थी। अरविंद ने अलग रास्ता चुन लिया, रामदेव ने सांप्रदायिक शक्तियों से हाथ मिला लिया। एक सवाल के जवाब में अन्ना ने कहा, हालांकि मेरा इरादा अरविंद की पार्टी का समर्थन करने का था, लेकिन अब ऐसा करना मुश्किल है क्योंकि वह भी पैसे के बल पर सत्ता और सत्ता के बल पर पैसे के रास्ते पर है। अन्ना ने इससे पहले कहा था कि वह अरविंद की पार्टी का समर्थन करेंगे बशर्ते वह ईमानदार प्रत्याशियों को चुनाव मैदान में उतारें। यह भी कहा था कि अगर केजरीवाल दिल्ली की चांदनी चौक सीट से केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल के खिलाफ खड़े होंगे तो वह उनके पक्ष में चुनाव प्रचार भी करेंगे। नरेंद्र मोदी के बारे में पूछे जाने पर गांधीवादी नेता ने कहा, गुजरात में भी तमाम भ्रष्टाचार है। बतौर मुख्यमंत्री मोदी राज्य में लोकायुक्त बिल क्यों नहीं ला रहे हैं। हर कोई सत्ता के बल पर पैसा बना रहा है।
अन्ना टीम के बाद अब रामदेव की रामलीला की बात करते हैं। अपने टीवी चैनल पर लगातार प्रचार करने के बाद रामदेव ने विदेशी बैंकों में जमा भारत के 400 लाख करोड़ रुपये को देश में वापस लाने के नारे के साथ अपना आन्दोलन शुरू किया था। पिछले 9 अगस्त 2012 को अनेक लोकरंजक नारों के साथ रामलीला मैदान में रामदेव ने गरमागरम बातों और दावों के साथ आन्दोलन शुरू किया जो 15 अगस्त को एक प्रहसन के रूप में समाप्त हो गया और अन्धी देशभक्ति और धर्मान्‍धता से लैस रामदेव के समर्थक वापस अपने-अपने घरों को लौट गये। रामदेव देश के बाहर बैंकों में मौजूद काले धन को वापस लाने की बात करते हैं, लेकिन देश के भीतर जो काला धन मौजूद है उसके बारे में कुछ नहीं बोलते। पूरे देश में मठों और मन्दिरों में, पूँजीपतियों और व्यापारियों के गोदामों में, नेताओं और नेताओं के चमचों के पास, सरकारी अफसरशाहों, इंजीनियरों, यहाँ तक कि चपरासियों और बिजली के मीटर रीडरों तक के घरों में करोड़ों की सम्पत्ति मिलती है। यह सारा काला धन जो देश के अन्दर मौजूद है उसकी मात्रा देश के बाहर मौजूद काले धन के भी कहीं ज्यादा है। बाबा रामदेव इस धन को बाहर निकलवाने की बात कभी नहीं करते थे । ख़ुद उनका 1100 करोड़ रुपये का व्यापारिक साम्राज्य काले धन की बुनियाद पर खड़ा है, इसके गम्भीर आरोप उन पर लगते रहे हैं। उत्तराखण्ड में किसानों की सैकड़ों एकड़ ज़मीन पर अवैध कब्ज़ा, मध्यप्रदेश में करोड़ों की अचल सम्पत्ति, स्कॉटलैण्ड में एक पूरा टापू ख़रीदना और स्वदेशी की बात करते-करते विदेशी कम्पनी ही ख़रीद लेना बाबा की कुछ ख़ास लीलाओं में शामिल हैं। कांग्रेस सरकार बदले के लिए भी उनके ख़िलाफ जाँच की कार्रवाई कर रही हो तो भी इतने थोड़े समय में इतना बड़ा साम्राज्य खड़ा कर लेना सवाल तो खड़े करता ही है। धर्म और पूँजी का इतना अच्छा मिश्रण कम ही देखने को मिलता है।
धार्मिक कट्टरपन्थ की राजनीतिक करने वाले संघ और भाजपा के पास आज कोई ठोस चुनावी मुद्दे नहीं बचे हैं, राम मन्दिर का मुद्दा आगे नहीं बढ़ पा रहा है, और संघ क्षरण एवं विघटन के दौर से गुजर रहा है। ऐसे में रामदेव का आन्दोलन संघ की धार्मिक कट्टरपन्थ की राजनीति के लिए एक उम्मीद जगा रहा है। वैश्विक स्तर पर पूँजीवाद आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहा है और भारत भी इस संकट के प्रभाव से अछूता नहीं रह गया है। ऐसी स्थिति में पीले, बीमार चेहरे वाले मध्यवर्ग के हताश नौजवानों का एक बड़ा हिस्सा अलगाव का शिकार है, जो किसी भी नारे के पीछे बिना सोचे-समझे चल पड़ता है। मध्यवर्ग का यही हिस्सा रामदेव जैसे बहरूपियों के नारों के बहकावे में आकर दक्षिणपन्थी राजनीति की सेवा में जा खड़ा होता है। रामदेव के आन्दोलन के दौरान संसदीय राजनीति के क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर वोट बैंक की राजनीति करने वाले कई बड़े खिलाड़ी इसके समर्थन में मंच पर आकर जनता के समक्ष अपनी-अपनी बात कह गये। मुलायम सिंह, मायावती, प्रकाश सिंह बादल, चौटाला जैसे जो लोग रामदेव के समर्थन में पहुँचे वे सभी अपने अपने क्षेत्र में भ्रष्टाचार और काले धन के सम्राट हैं। इनके साथ ही संघ और नरेन्द्र मोदी भी इनके गले में अपनी बाँहें डाले हुए दिखे।केजरीवाल के पार्टी बनाने से भाजपा नाख़ुश है क्योंकि उसे लग रहा है कि कांग्रेस विरोधी वोट काटकर यह पार्टी चुनाव में तो उसे ही नुकसान पहुँचायेगी। दूसरी ओर, रामदेव के कारनामों से कुल मिलाकर चुनाव में भाजपा को फायदा मिलने की उम्मीद थी । इसीलिए दिल्ली में रामदेव के मंच पर भाजपा के पूर्व अध्यक्ष नितिन गडकरी पहुँचकर रामदेव के पैर छू रहे थे।
आज बढ़ते आर्थिक संकट के कारण लोगों में पनपते असन्तोष के माहौल में ये आन्दोलन जनता के बीच भ्रम पैदा कर रहे हैं, और जनता के सामने कोई क्रान्तिकारी विकल्प न होने के चलते लोकरंजक नारे देकर उन्हें अपने प्रभाव में ले रहे हैं।आज तमाम भ्रष्टाचार के आरोप लगने के बावजूद भी कांग्रेस किसी भी तरह से कमजोर नजर नहीं आ रही है बल्कि उसके खिलाफ चलाये जा रहे तमाम आन्दोलन एक एक करके ख़त्म हो गए हैं।अन्ना ,अरविन्द केजरीवाल और रामदेव के आन्दोलन का हश्र तो यही साबित करता है कि जनता कि याददाश्त बहुत कमजोर होती है।

विवेक मनचन्दा ,लखनऊ

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