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कथनी और करनी में अंतर के चलते ही आज भाजपा की दुर्दशा हुई है

मेरे विचार
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अभी तक कांग्रेस और अन्य पार्टियों पर वंशवाद का आरोप लगाने वाली भाजपा इस बार खुद कटघरे में है।वंशवाद व परिवारवाद को लेकर सपा व कांग्रेस पर हमला बोलने वाली भाजपा ने अपनी प्रदेश टीम को बनाने में नेता पुत्रों को तवज्जो देने में कोई कंजूसी या संकोच नहीं किया।उत्तर प्रदेश भाजपा की नई टीम में नेता पुत्रों को देखकर वे लोग स्वाभाविक ही चकित होंगे, जो कैडर आधारित पार्टी होने के कारण इस दल को वंश और परिवार की तमाम दुष्प्रवृत्तियों से अछूते मानते रहे हैं। नई प्रदेश कमेटी में राजनाथ सिंह, कल्याण सिंह, लालजी टंडन और प्रेमलता कटियार के बेटे-बेटियों का होना सुबूत है कि भले देर से ही हो, पर भाजपा ने भी राजनीति में अपने बेटे-बेटियों को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति अपना ली है।
आठ उपाध्यक्षों में दो राजवीर सिंह राजू भैया कल्याण सिंह और गोपाल टंडन लालजी टंडन के पुत्र हैं। प्रदेश महामंत्री पंकज सिंह पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह के पुत्र हैं। प्रदेश मंत्री बनाई गईं नीलिमा कटियार अभी तक प्रदेश महामंत्री रहीं पार्टी की वरिष्ठ नेता प्रेमलता कटियार की पुत्री हैं। इसके अलावा भी टीम में शामिल कुछ चेहरे किसी न किसी नेता के नजदीकी हैं।
एक तरह चार नेताओं के पुत्र-पुत्रियों का समायोजन तो दूसरी तरफ हृदयनारायण दीक्षित जैसे चेहरों की अनदेखी ने वाजपेयी के फैसले को कठघरे में खड़ा कर दिया है। चर्चा है कि नेताओं के पुत्र-पुत्रियों को जगह देने के पीछे वाजपेयी की नेताओं को खुश करने या संतुलन साधने की कोशिश के अलावा दूसरा कोई कारण नहीं है।
कल्याण के पुत्र राजवीर का टीम में जगह पाना पहले से ही तय माना जा रहा था। पंकज सिंह को विधानसभा चुनाव के दौरान ही प्रदेश मंत्री से प्रदेश महामंत्री पद पर तरक्की दे दी गई थी। इसलिए उन्हें तो महामंत्री रखना ही था।
पंकज के मंत्री से महामंत्री बनने के बाद लालजी टंडन के पुत्र गोपाल टंडन की तरक्की भी तय मानी जा रही थी। कारण, लखनऊ की राजनीति में टंडन की अनदेखी फिलहाल किसी नेता के लिए आसान नहीं है। प्रेमलता कटियार भी लंबे समय से अपनी पुत्री के समायोजन में लगी थीं।
भाजपा को इसका नुकसान यह होगा कि अब वह दूसरी राजनीतिक पार्टियों के परिवारवाद पर आवाज नहीं उठा सकेगी।
क्षेत्रीय पार्टियां चूंकि नैतिक आदर्शों का वैसा दावा भी नहीं करतीं, इसलिए उत्तर से दक्षिण भारत तक उनके यहां परिवारवाद का खुला खेल है। यही कारण है कि द्रविड़ राजनीति के पुरोधा को उत्तराधिकारी के रूप में अपनी ही संतानें दिखाई देती हैं, तो उत्तर प्रदेश में सत्ताधारी सपा में परिवारवाद पुत्र तक सीमित न रहकर उससे आगे विस्तार पा चुका है।
कैडर आधारित वाम पार्टियों में यह दुष्प्रवृत्ति बेशक नहीं है, पर जो खुद अस्तित्व के लिए जूझ रही हों, वे राजनीति को भला क्या दिशा दे पाएंगी! भारत जैसे लोकतंत्र में राजनीति के परिवार तक सीमित हो जाने से न सिर्फ देशसेवा की महत्वाकांक्षा पाले आदमी का संसद और विधानसभाओं में प्रवेश मुश्किल हो जाएगा, बल्कि वैसी स्थिति में हम भविष्य में किन्हीं राममनोहर लोहिया, चौधरी चरण सिंह, चंद्रशेखर या अटल बिहारी वाजपेयी के होने की संभावना को भी खत्म कर रहे होंगे ।
| जहाँ तक बात कांग्रेस में वंशवाद की है तो यह किसी से छुपा नहीं है| देश को सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री देने वाला यह परिवार भारतीय राजनीति में अपनी एक अलग पहचान रखता है, लेकिन इस बीच बात उत्तर प्रदेश की राजनैतिक पार्टियों की जाये तो यहाँ के भी दलों में वंशवाद बहुत तेज़ी से फला फूला है|

अगर एक नज़र बहुजन समाजवादी पार्टी पर ही डाली जाये तो मुख्यमंत्री के परिवार को छोड़कर उनकी पार्टी के बड़े नेताओं और मंत्रियों में ज्यादातर नामों ने अपने परिवार के सदस्यों की राजनैतिक पहचान बनाने में कांग्रेस को बहुत पीछे छोड़ दिया है| इसी क्रम में यदि प्रदेश की एक अन्य राजनैतिक दल समाजवादी पार्टी को भी देखा जाये तो यह दल भी राजनैतिक पटल पर परिवारवाद और वंशवाद को बढ़ावा देने में कांग्रेस से भी आगे है| समाजवादी पार्टी के मुखिया समाजवाद दावा तो समाजवाद लेन का करते है लेकिन अपनी पार्टी के अधिकांश महत्वपूर्ण पधिकारी नियुक्त करते समय उन्होंने केवल परिवारवाद को ही अपनाया है| उनकी पार्टी में उनके भाई राम गोपाल यादव, शिवपाल सिंह यादव, पुत्र अखिलेश यादव व उसकी पत्नी डिम्पल यादव के अलावा भतीजे धर्मेन्द्र यादव का कद पार्टी के एनी कार्यकर्ताओं के सामने बहुत बड़ा है|
अपने को महान समाजवादी चिन्तक राममनोहर लोहिया का चेला कहलाने वाले सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव उसी दिन लोहिया को भूल गए थे जब एक के बाद एक उन्होंने अपने भाई भतीजों बेटे बहू को एक के बाद एक राजनीती में उतार दिया जबकि लोहिया राजनीति में परिवारवाद के कट्टर विरोधी थे| शायद ही कोई ऐसा बचा हो जो सीधे तौर पर राजनीति में ना हो, जो सीधे तौर पर राजनीति में नहीं हैं उनको पिछले दरवाजे से सत्ता का सुख देने की तैयारी है|
शायद भाजपा की इन्ही नीतियों के चलते ही उसका पारम्परिक वोट बैंक उत्तर प्रदेश और देश के कई राज्यों में पूरी तरह से दरक चुका है। जिस बात के लिए वह दूसरों पर उंगली उठाती थी आब खुद वही कार्य कर रही है।कभी भ्रष्टाचार के मुद्दे पर शिबू सोरेन और कांग्रेस पर विवाद खड़ा करने वाली इसी भाजपा ने अभी पिछले दिनों तक शिबू सोरेन के साथ झारखण्ड में सरकार चलाई थी।उत्तर प्रदेश में मायावती को भ्रष्टाचार के लिए जिम्मेदार ठहराने वाली इसी भाजपा ने तो मायावती को एक बार नहीं बल्कि तीन तीन बार समर्थन देकर उसकी सरकार बनवाई थी ।गत वर्ष उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों से ठीक पहले ही मायावती सरकार के भ्रष्ट मंत्री बाबूसिंह कुशवाहा को भी भाजपा में शामिल करने पर खूब बवाल मचा था जिसके बाद उनकी सदस्यता स्थगित कर दी गई थी।
अभी पिछले दिनों ही भाजपा में शामिल किये गए पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने भी जिस समय भाजपा छोड़ी थी तब उसे उन्होंने मरा सांप बताया था ।मुलायम सिंह से लेकर अकेले अपने दम पर कुछ न कर पाने के बाद आखिर वह भाजपा में पुनः शामिल तो गए पर इससे भाजपा को नहीं बल्कि कल्याण सिंह का ही थोडा बहुत कल्याण जरुर हो गया है क्योंकि उनका खुद का जनाधार तो अब रहा नहीं था ।
इन सभी तथ्यों को देखें तो पाएंगे की कथनी और करनी में अंतर के चलते ही आज भाजपा की यह दुर्दशा हुई है ।अगर अभी भी भाजपा ने अपनी शैली में परिवर्तन नहीं किया तो उसका केंद्र में अपनी सरकार बनाने का सपना सिर्फ सपना ही बनकर रह जायेगा ।

विवेक मनचन्दा,लखनऊ

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