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मोदी का प्रधानमंत्री बनना आसान नहीं

मेरे विचार
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पिछले दिनों जब केंद्र की संप्रग सरकार से श्रीलंका के तमिलों के मुद्दे पर डीएमके ने अपना समर्थन वापस लिया था तब मुख्य विपक्षी दल भाजपा को लगने लगा था की केंद्र सरकार अब कमजोर हो रही है और लोकसभा के चुनाव समय से पूर्व भी हो सकते हैं ।गत वर्ष ममता बनर्जी के केंद्र सरकार से अलग होने के बाद डीएमके का अलग होना केंद्र सरकार के लिए भले ही राहत की बात नहीं था पर भाजपा को इससे कुछ ज्यादा फायदा होता दिखाई नहीं दिया ।अगर कांग्रेस के सहयोगी उसके साथ नहीं रहे तो आज भाजपा की स्थिति भी जुदा नहीं है।पिछले सत्रह साल से जनता दल यूनाइटेड से भाजपा का गठबंधन खतरे में दिखाई दे रहा है ।आगामी लोकसभा के चुनावों में नीतीश कुमार नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री प्रोजेक्ट किये जाने पर सहमत नहीं हैं और दूसरी तरफ भाजपा को नीतीश का यह रुख नहीं भा रहा है।हालाँकि भाजपा के अन्दर ही कई लोग ऐसे हैं जिन्हें नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए प्रोजेक्ट किये जाने पर ऐतराज है और वह खुद भी इस पद की महत्वाकांक्षा पाले हुए हैं ।
nitishजनता दल यूनाइटेड नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर परोक्ष हमले के बाद दोनों दलों में बढ़ा तनाव कम करने के प्रयास तेज हो गए हैं। दोनों दलों के प्रमुखों की ओर से पार्टी नेताओं को हिदायत दी गई है कि इस मुद्दे पर बयानबाजी बंद की जाए।इतना ही नहीं कहा जा रहा है कि खुद नरेंद्र मोदी ने इस मुद्दे को ज्यादा तूल न देने की पार्टी नेताओं से अपील की है।
बताया जा रहा है कि दोनों दलों ने 17 वर्ष पुराने गठबंधन को बचाने का हवाला दिया है। साथ ही कहा जा रहा है कि पीएम पद के उम्मीदवार के नाम पर हो सकता है कि एनडीए, यूपीए के उम्मीदवार की घोषणा का इंतजार करे। यदि यूपीए ने घोषणा न की तो एनडीए भी घोषणा न करे।गौरतलब है कि गत 14 -अप्रैल 2013 को को दिल्ली में जदयु की कार्यकारिणी की बैठक में नीतीश कुमार ने कहा कि एनडीए के तरफ से कोई भी पीएम पद का उम्मीदवार हो वह धर्मनिरपेक्ष होना चाहिए। विकास के नाम पर भी नरेंद्र मोदी पर उन्होंने परोक्ष टिप्पणी की।
गत 14 -अप्रैल 2013 को राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन में शामिल जनता दल यूनाइटेड ने घोषणा की कि यदि सन् 2014 में होने जा रहे संसद के आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के प्रमुख नेता लालकृष्ण आडवाणी को विपक्ष की तरफ़ से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जाता है, तो जनता दल यूनाइटेड को कोई आपत्ति नहीं है। इससे एक दिन पहले ही जनता दल यूनाइटेड ने प्रधानमंत्री पद के लिए नरेन्द्र मोदी को उम्मीदवार बनाने का विरोध किया था, जिन्हें आज बहुत से लोग भाजपा की तरफ़ से भावी प्रधानमंत्री के रूप में देख रहे हैं। यह कहना मुश्किल है कि जनता दल यूनाइटेड एक अतिवादी राजनीतिज्ञ के बदले दूसरे अतिवादी राजनीतिज्ञ का समर्थन क्यों करना चाहता है, लेकिन यह बात साफ़ है कि चुनाव की पूर्ववेला में राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन में शामिल विभिन्न पार्टियों के बीच इस तरह के राजनीतिक झगड़ों का चुनाव पर बुरा असर पड़ेगा।
पहले से ही यह उम्मीद की जा रही थी कि जद(यू) को प्रधानमंत्री के रूप में नरेन्द्र मोदी की उम्मीदवारी स्वीकार नहीं होगी। इसका कारण यह है कि वर्ष 2002 में गुजरात में हुए मुसलमानों के जनसंहार के समय नरेन्द्र मोदी की क्या भूमिका रही, यह बात अभी तक साफ़ नहीं हुई है। यह माना जाता है कि मोदी ने उन दंगों को रोकने के लिए कोई क़दम नहीं उठाया था। कुछ लोगों का तो यह भी मानना है कि उन्होंने उन दंगों में एक वर्ग को बढ़ावा दिया था। लेकिन नरेन्द्र मोदी अपने ऊपर लगे सब आरोपों को सिरे से ही नकारते हैं। जनता दल यूनाइटेड का कहना है कि नरेन्द्र मोदी की उम्मीदवारी का समर्थन करने का मतलब है — पार्टी के कार्यक्रम के एक मुख्य सिद्धान्त ‘धर्मनिरपेक्षता’ से इन्कार करना।
यह पूछे जाने पर कि राजनाथ सिंह समेत भाजपा के कई नेता मोदी को लोकप्रिय बता रहे हैं, जद यू प्रवक्ता ने कहा, ‘लोकप्रिय होना एक बात है और प्रधानमंत्री बनना दूसरी बात। मोदी उनके (भाजपा) मुख्यमंत्री है। उन्हें मोदी को लोकप्रिय बताने का अधिकार है।’ मोदी के मुद्दे पर भाजपा से जद यू के गठबंधन तोड़ने और कांग्रेस के साथ जाने की अटकलों के बारे में पूछे जाने पर जद यू प्रवक्ता ने कहा कि भाजपा हमारी मित्र पार्टी है जबकि कांग्रेस मित्र नहीं है। मित्रों के साथ न तो कोई सौदेबाजी होती है और न ही उस पर दबाव बनाया जाता है।
उन्होंने कहा, ‘भाजपा ने अभी अपने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार का नाम तय नहीं किया है। जब तक भाजपा का संसदीय बोर्ड स्पष्ट तौर पर अपने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार का नाम घोषित नहीं करता तब तक हम कयासों के आधार पर टिप्पणी नहीं कर सकते।’
इस पार्टी की लोकसभा में सिर्फ़ 20 सीटें हैं और शायद ही उसे अगले चुनाव में इतनी ज़्यादा सीटों पर जीत हासिल होगी कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन का उसके समर्थन के बिना काम नहीं चलेगा। वैसे भी जनता दल यूनाइटेड के नेताओं ने यह घोषणा की है कि वे काँग्रेस का साथ किसी हालत में नहीं देंगे। लेकिन यह बात भी सच है कि भारत की राजनीति इतनी जटिल और बहुस्तरीय है कि किसी भी छोटे से छोटे दल की उपेक्षा करना सम्भव नहीं है। ऐसा भी हो सकता है कि एक पार्टी द्वारा लिए गए निर्णय का समर्थन दूसरी पार्टी कर दे, और फिर दूसरी पार्टी के पीछे तीसरी पार्टी भी चली जाए, तब तो राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन ही ख़त्म हो जाएगा और उसका कोई नामलेवा भी नहीं बचेगा। तब इसका सबसे बड़ा फ़ायदा काँग्रेस को और विपक्षी सँयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन को होगा।
जनता दल यूनाइटेड ने अपनी तरफ़ से ऐसा नाम पेश किया है, जिस पर हालाँकि सहमति हो सकती है। उसने भूतपूर्व उपप्रधानमंत्री और भाजपा के नेता लालकृष्ण आडवाणी का नाम प्रधानमंत्री के रूप में पेश किया है, जो भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री डॉ० मनमोहन सिंह से उम्र में पूरे पाँच साल बड़े हैं और 87 वर्ष के हो चुके हैं।
MODIनरेंद्र मोदी जनता और पार्टी कार्यकर्ताओं में भले ही लोकप्रिय हों और प्रधानमंत्री पद के लिए सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति हों, लेकिन सियासी समीकरण उनके प्रधानमंत्री बनने के खिलाफ हैं. जनता और कार्यकर्ताओं में भले ही मोदी लोकप्रिय हो, लेकिन पार्टी के वरिष्ठ नेताओं में कतई नहीं।दिल्ली के आशोक रोड़ स्थित पार्टी मुख्यालय में मोदी के दोस्त कम और दुश्मन ज्यादा हैं. पार्टी के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी की प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा मोदी की राह में सबसे बडा रोड़ा है।
इसलिए राजनीतिक तौर पर देखा जाए तो प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बदलने से भावी सरकार की नीतियों में कोई परिवर्तन नहीं होगा, दूसरी तरफ़ इससे राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन की एकजुटता ख़तरे में पड़ रही है। इसका मतलब यह है कि भावी आम चुनाव में राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन की जीत की सम्भावना धूमिल हो सकती है।
बेशक मीडिया उनकी राष्ट्रीय भूमिका गत एक वर्ष से उभार रहा है फिर भी लाख टके का सवाल यह है कि अपनी समस्त उपलब्धियों व खामियों के होते हुए क्या वह इन बाधाओं से पार हो पाते हैं?
इधर जेडीयू के साथ रिश्‍तों में लगातार बढ़ते तनाव के बीच बीजेपी के अध्‍यक्ष राजनाथ सिंह ने कहा है कि पार्टी का किसी भी सहयोगी दल से किसी तरह का तनाव नहीं है।हाल ही में बीजेपी की कमान संभालने वाले राजनाथ सिंह ने कहा है कि अगर एनडीए के भीतर कोई समस्‍या आती है, तो हम मिल-जुलकर समस्‍या सुलझाएंगे।राजनाथ सिंह का यह बयान ऐसे वक्‍त पर आया है, जब ऐसी चर्चा गर्म है कि जेडीयू जल्‍द ही बीजेपी से आगामी लोकसभा चुनाव के लिए प्रधानमंत्री पद के उम्‍मीदवार का नाम घोषित करने की मांग कर सकती है।समझा जा रहा है कि जेडीयू नरेंद्र मोदी के नाम पर सहमत नहीं होगी। अगर ऐसा होता है, तो एनडीए में फूट पड़ने का खतरा बढ़ जाएगा।बहरहाल, पीएम पद की उम्‍मीदवारी के मुद्दे पर बीजेपी और जेडीयू के बीच रिश्‍ते कितने सहज हो सकेंगे, यह तो आने वाला वक्‍त ही बताएगा, पर इतना तो तय है कि बीजेपी अपने पुराने सहयोगी को साथ जोड़े रखने की भरपूर कोशिश करेगी।
मोदी को भले ही पार्टी का कार्यकर्ता पसंद करता है और तीसरी बार गुजरात का मुख्यमंत्री बनने पर मीडिल क्लास में उनकी लोकप्रियता बढ़ी हो, लेकिन मुसलमान आज भी उन्हें अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानती है। मोदी के प्रधानमंत्री बनने में सबसे बडा रोड़ा मुसलमान ही हैं। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के सवाल पर बिहार के जानेमाने शिक्षाविद और अल्पसंख्यक नेता अशफाक करीम तल्खी से कहते हैं, “सवाल नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने का नहीं है, बल्कि भारतीय संविधान की रक्षा का है। इसलिए देश की बागडोर ऐसी पार्टी और व्यक्ति के हाथों होनी चाहिए जो संविधान की आत्मा की रक्षा कर सके। लिहाजा, किसी भी सांप्रदायिक व्यक्ति के हाथों देश की सत्ता सौंपने का अर्थ संविधान की आत्मा पर प्रहार जैसा है।”
माना जा रहा है कि मुसलिम वोट बैंक के खोने के डर से बहुत सारे क्षेत्रीय दल एनडीए में शामिल होने से कतरा रहे हैं और एनडीए का कुनबा बढ़ने की बजाए सिकुड रहा है। चाहे चंद्रबाबू नायडू की तेलगूदेशम हो, प्रफुल्ल महंत की असम गण परिषद हो या फिर ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस, मोदी को फूंटी आंख नहीं देखने वाला मुसलमान इनका एक बड़ा वोट बैंक है। देश में मुसलमानों की संख्या भले ही करीब 15 फीसदी हो, लेकिन ये देश की सियासी तस्वीर बदलने की ताकत रखते हैं। मुसलमानों के वोटिंग पैटर्न और राजनीतिक व्यवहार पर नजर डाले तो पता चलता है कि न केवल इनका मतदान का प्रतिशत कहीं ज्यादा होता है बल्कि ये किसी पार्टी को एक मुश्त वोट देते हैं। यानी इनके वोट बंटने या बिखरने की संभावना कम होती है। मुसलमानों के मतदान के इसी व्यवहार के चलते 2014 में सियासी समीकरण भाजपा के खिलाफ जा सकता है।
आल इंडिया काउंसिल फॉर मुसलिम इकॉनामिक अपलिफ्टमेंट के आंकड़े बताते हैं कि देश में करीब 60 ऐसे जिले हैं जहां मुसलिम मतदाताओं की संख्या 20 फीसदी से ज्यादा है और 20 जिले ऐसे हैं जहां 40 फीसदी से ज्यादा मुसलिम आबादी है। राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण उत्तर प्रदेश में करीब 19 फीसदी तो बिहार में मुसलमानों की संख्या करीब 17 फीसदी है। यदि बात मुसलिम बहुल राज्यों की बात करें तो पश्चिम बंगाल, केरल, आसाम, उत्तर प्रदेश, बिहार, आध्र प्रदेश और कश्मीर में करीब 200 लोकसभा सीटें हैं। जाहिर है किसी पार्टी के लिए भी मुसलमानों के समर्थन के बगैर केंद्र में सरकार बनाना मुश्किल है। राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं, “नरेंद्र मोदी के नाम पर हिंदू-मुसलमान मतदाताओं का का ध्रुवीकरण होना तय है। ऐसे में कांग्रेस जैसे धर्मनिरपेक्ष दलों को फायदा हो सकता है।” “पहले मुसलमानों के लिए अमेरिका सबसे बड़ा दुश्मन होता था आज उसकी जगह मोदी ने ले ली है। ऐसे में मोदी को प्रधानमंत्री बनने से रोकने के लिए मुसलमान एक जुट हो जाएगा। जो मुसलिम वोट क्षेत्रीय दलों में बंट जाता था, वह एकमुश्त कांग्रेस को मिलेगा। क्योंकि कांग्रेस ही मोदी को दिल्ली की सत्ता से बेदखल कर सकती है।”दूसरा तर्क यह है कि अगर कांग्रेस की बजाए मुसलमानों ने भाजपा को हराने की ताकत रखने वाले क्षेत्रीय दलों को वोट दिया तो केंद्र में भाजपा की बजाए कांग्रेस की मदद से तीसरे मोर्चे की सरकार बन सकती है। लेकिन यह भी हकीकत है कि इस बार गुजरात विधानसभा चुनाव में मुसलमानों ने मोदी को समर्थन दिया है। 2012 के विधानसभा चुनावों में गुजरात की ऐसी 66 सीटें जहां मुसलिम आबादी 10 फीसदी से ज्यादा थी, उनमें से 40 भाजपा को मिली।इसी तरह जहां मुसलिम आबादी 15 फीसदी थी, वहां कि 34 सीटों में से 21 सीटों पर भाजपा ने जीत दर्ज की. इसके उन नौ सीटों पर भी भाजपा ने जीत हासिल की जहां मुसलमानों की आबादी 20 से 50 फीसदी तक थी. लेकिन यह भी हकीकत है कि गुजरात जैसा समर्थन मोदी के पूरे देश में मिले, इसमें संशय है।मोदी के विरोधी तर्क देते हैं कि गुजरात में कांग्रेस बेहद कमजोर है और मुसलमानों के पास कोई विकल्प नहीं था।लेकिन 2014 में ऐसा नहीं होगा. लालकृष्ण आडवाणी ने राष्ट्रीय परिषद के अपने समापन भाषण में अल्पसंख्यकों को भाजपा से जोडने की नसीहत देकर पार्टी को सियासी आईना भी दिखाया. इस मौके पर आडवाणी ने एनडीए का कुनबा बढ़ाने, अल्पसंख्यकों के साथ पार्टी का समीकरण ठीक करने और उनके प्रति वचनबद्धता की बात कर भावनाओं के आगे “सियासी लक्ष्मण रेखा” खीच दी. इसका साफ संदेश था कि भाजपा के विकास और सुशासन के एजेंडे से सहमत होते हुए भी अल्पसंख्यक समुदाय के लोग जिन कारणों से भाजपा से दूरी रखते हैं, उन्हें दूर करना होगा. जाहिर है निशाना मोदी पर था।मोदी सिर्फ और सिर्फ उसी स्थिति में प्रधानमंत्री बन सकते हैं जब उनके नाम पर भाजपा को पूर्ण बहुमत मिल जाए, जैसा की फिलहाल लगता नहीं है।

विवेक मनचन्दा,लखनऊ

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