Menu
blogid : 13858 postid : 243

चिटफंड कंपनियों का गोरखधंधा और लुटते निवेशक

मेरे विचार
मेरे विचार
  • 153 Posts
  • 226 Comments

फाइनेंस कम्पनियों की कलई खुलने के साथ ही देश और खासकर पूर्वोत्तर इलाकों में बाकायदा हाहाकार मच गया है। कम से कम बंगाल और असम तथा आसपास के इलाकों में जोरदार विरोध प्रदर्शन और तोड़फोड़ की वारदातें हुई हैं। इन हालातों के मद्देनजर पुलिस को सतर्क कर दिया गया है, लेकिन हालात काबू में नहीं है।30 हजार करोड़ रूपया लेकर भाग गयी शारदा फाइनेंस कम्पनी के चलते इसके करोड़ों निवेशकों और आश्रितों की हालत तबाही तक पहुंच गयी है। इसमें पैसा जमा करने वाले लोग अब या तो आत्महत्या का रास्ता अख्तियार कर रहे हैं, या फिर वे सड़क पर उतर कर हंगामा, तोड़फोड़ और आगजनी करने पर आमादा हैं।
एक बार फिर पूरी शिद्दत से यह बात महसूस की जा रही है कि चिटफंड कंपनियों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। कोई न कोई ऐसी व्यवस्था तो अब की ही जानी चाहिए कि ये कंपनियां लोगों को ठग न सकें। दरअसल, इसकी जरूरत इसलिए महसूस की जा रही है कि पश्चिम बंगाल की एक चिटफंड कंपनी डूब गई है। उसमें आम जनता के करोड़ों रुपए फंसे हुए हैं। यह सही है कि उस चिटफंड कंपनी का मालिक गिरफ्तार कर लिया गया है, पर यह नहीं माना जा सकता कि लोगों का पैसा वापस हो ही जाएगा।चिटफंड कंपनियों के जरिए ठगी की घटनाएं कोई नई बात नहीं हैं। देश के हर हिस्से में ऐसी हजारों चित फंड कम्पनियां निवेशकों का करोड़ों रुपया डकारने के बाद रातो-रात गायब हो जाती हैं।
गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के नाम पर पंजीकृत होने वाली चिटफंड कंपनियों की लुभावनी योजनाओं में जनता आराम से फंस जाती है। जैसे-पश्चिम बंगाल की जो चिटफंड कंपनी डूब गई है, उसने भी लोगों से तमाम तरह के वादे किए थे। सबसे खास वादा यह था कि उसने दावा किया था कि उसके यहां जमा होने वाले पैसे को चार वर्ष में ढाई गुना कर दिया जाएगा। जाहिर है कि यह योजना लोगों को लुभाने में सफल रही होगी।
यह इसलिए कि लोगों का जमा धन बैंक आठ वर्ष से ज्यादा समय में दो गुना करते हैं। ऐसे में यदि कोई चार वर्ष में जमा धन को ढाई गुना करने का वादा करे, तो लोग फंस ही जाएंगे। अकसर देखा यह भी जाता है कि चिटफंड कंपनियों के झांसे में साधारण मेहनतकश आदमी ही ज्यादा फंसते हैं। कम अवधि में अधिक लाभ का प्रलोभन और छोटी कमाई में बड़ी-बड़ी इच्छाओं को पूरा करने की चाह गरीबों को इन कंपनियों के जाल में फंसा देती है। ऐसी कंपनियां बेरोजगारों को अच्छी कमाई का प्रलोभन देकर उन्हें अपने एजेंट के रूप में भी नियुक्त करती हैं।ये एजेंट अपनी रोजी-रोटी के लिए अपने जान-पहचान के लोगों को चिटफंड कंपनियों में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। आम आदमियों का भरोसा इन्हीं एजेंटों पर होता है, क्योंकि वे उनके ही आसपास रहते हैं। चिटफंड कंपनियों के कर्ताधर्ता प्रारंभ में तो योजनाओं का लाभ अपने निवेशकों को देते हैं, ताकि जनता का भरोसा जीता जा सके और कोई बड़ा हाथ मारा जा सके। ज्यों ही इन कंपनियों के हाथ में कोई बड़ी रकम आती है, तो फिर ये अचानक गायब हो जाती हैं। अंत में नुकसान निवेशकों का होता है और इसका पूरा खामियाजा कंपनियों के एजेंटों को भुगतना पड़ता है, क्योंकि लोग उन्हीं पर भरोसा करके ही इन कंपनियों में पैसा लगाते हैं।
नॉन बैंकिंग और चिट फंड कंपनियों ने आम लोगों की जेब से पैसे उगाहने के अनोखे तरीके ईजाद कर लिये हैं। नौ साल में 15 गुना और पांच साल में तीन गुना पैसा देने के लोभ में लाखों लोग फंसते चले गये।1990 के दशक में जब तत्कालीन सरकार ने नॉन बैंकिंग कंपनियों के प्रति रुख कड़ा किया, तो कंपनियां तो भाग खड़ी हुईं, लेकिन जिन लोगों ने पैसा जमा किया, वे सब हाथ मलते रह गये। एक बार फिर ऐसी कंपनियों ने अपना जाल बिछाया है और लोग इसमें फंसते चले गये। नॉन बैंकिंग कंपनियों के जाल में कम पढ़-लिखे लोग तो फंसे ही हैं, अधिक ब्याज का लालच देकर संपन्न तबके को भी इन कंपनियों ने चूना लगाया है।चिट फंड कंपनियों के शातिर संचालकों ने कम समय में अधिक पैसे की उगाही के लिए बड़ी और नामी-गिरामी कंपनियों के नामों से मिलती-जुलती कंपनियां बनायीं। उन्होंने स्थानीय लोगों को बेहतर क मिशन का लोभ देकर एजेंट नियुक्त कर लिये। ऐसे लोगों पर निवेशकों का भरोसा देख कंपनियां अपना टारगेट बढ़ाते गयीं। सरकारी बैंकों की बेरुखी ने भी नॉन बैंकिंग कपंनियों का कारोबार बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। रोज सब्जी बेच कर या अन्य छोटी-मोटी दुकानों के जरिये रोजी-रोटी कमानेवालों पर इन कंपनियों की निगाहें गयीं।इनके पैसे सरकारी बैंक में जमा नहीं होते थे। नॉन बैंकिंग और चिट फंड कंपनियों के स्थानीय एजेंटों ने उनके पैसे नहीं डूबने का भरोसा दिलाया। साथ में कम दिनों में दोगुने या चौगुने होने का लालच भी दिया। गया में कुछ कंपनियों ने रियल स्टेट में निवेश के नाम पर पैसे की उगाही की है। कुछ निवेशकों को शुरुआती दिनों में पैसा वापस भी मिल गया। इसका उदाहरण देकर दूसरे और छोटे- छोटे निवेशकों की जेबों से पैसे निकालने के तरकीब निकाले गये।
पश्चिम बंगाल की शारदा चिटफंड कंपनी ने जो गड़बड़ी की है, उसका खामियाजा भी उसके एजेंटों को ही भुगतना पड़ रहा है।उल्लेखनीय है कि हाईकोर्ट ने सेबी और आरबीआई की सलाह के बाद शारदा के सभी बैंक खातों में से किसी भी लेन देन पर रोक लगा दी है। चिट फंड कंपनी के मुखिया सुदीप्त सेन के खिलाफ पश्चिम बंगाल और असम में कुल 5 एफआईआर दायर किया गया है। सभी शिकायतें भादवि की धारा 420,406,120बी, 506 और 34 के तहत दर्ज की गई हैं। राज्य के प्रमुख विपक्षी दल माकपा के अलावा कांग्रेस व भाजपा भी शारदा घोटाले की सीबीआई जांच की मांग कर रहे हैं।इस कंपनी ने शेयर बाजार को 30 जनवरी, 2009 को सूचित किया था कि उसका 30 जून, 2008 की स्थिति के अनुसार 802 थिएटरों से समझौता हुआ था। इन 802 समझौतों में से कंपनी सिर्फ 257 मूल समझौते ही सेबी को दिखा सकी थी जिसकी वजह से यह निष्कर्ष निकाला गया कि 545 समझौते कभी अस्तित्व में थे ही नहीं। नतीजतन सेबी ने निष्कर्ष निकाला कि कंपनी ने उसे गलत जानकारी दी।
सेबी ने चार और कंपनियों पर कार्रवाई को कहा पश्चिम बंगाल में चार और कंपनियां चार हजार करोड़ रुपए से अधिक की चिट फंड स्कीम चला रही हैं। सेबी ने राज्य सरकार को भेजी चिट्ठी में इनके खिलाफ भी जांच कर कार्रवाई करने को कहा है। इन कंपनियों में रोज वैली इन्वेस्टमेंट, सुमंगल इंडस्ट्रीज, एमपीएस ग्रीनरी और सन प्लांट ग्रुप शामिल है। सेबी के एक अधिकारी के अनुसार हालात इतने बुरे हैं कि पश्चिम बंगाल प्रेशर कुकर बम जैसी स्थिति में आ चुका है।
सुनने में यह भी आ रहा है कि सुदीप्तो सेन ने सीबीआई को 18 पन्नों का खत लिखकर इस चिट फंड में पश्चिम बंगाल के कई नेताओं द्वारा ब्लैकमेल किये जाने की बात कही है जो ममता बनर्जी की सरकार के लिये भी मुश्किलें पैदा कर सकती हैं। सेबी ने भी इस पर नये सिरे से जांच शुरू कर दी है।शारदा चिट फंड निवेशकों से 100 रु। से 1000 तक की राशि 12 से 60 महीनों के लिये निवेश करवाते हुए 12 से 24% का लाभ के साथ रिफंड का दावा करती थी। इतना ही नहीं कंपनी निवेश की रिटर्न में नकद रकम के अलावे जमीन, फ्लैट आदि माध्यम भी थे। नये निवेशकों को निवेश एग्रीमेंट के तहत इनमें से कोई भी रिटर्न माध्यम चुनने की छूट थी। निवेशकों को ये सुविधायें लुभाती थीं क्योंकि एक छोटे निवेश से जमीन और फ्लैट पा लेना उन्हें ज्यादा लाभकारी लगता था। कंपनी की विश्वसनीयता पर उन्हें शक नहीं होता था क्योंकि शारदा निवेशकों का पैसा किसी एक जगह लगाने की बजाय रियल एस्टेट, मीडिया, एग्रो, हॉस्पिटैलिटी आदि कई कारोबारों में लगाये जाने का भरोसा देती थी। शारदा की वेबसाइट पर भी इसके इन कारोबारों की जानकारी होती थी। अतः निवेशकों को इन पर शक नहीं होता था। असलियत में शारदा का रियल स्टेट आदि का कोई कारोबार नहीं था। इसका सारा कारोबार नये निवेशकों के जुड़ने से था। नये निवेशकों के आने से मिली रकम वह रिटर्न और निवेश से मिले लाभ के रूप में पुराने निवेशकों को दे देता था। कंपनी घाटे में जाने लगी क्योंकि निवेशकों की निवेश अवधि कम थी और निवेशक आने कम हो गये। इस प्रकार लाखों निवेशकों के करोड़ों रुपए लेकर सेन को भागना पड़ा और मामला प्रकाश में आया।
सहारा का मामला भी कुछ ऐसा ही रहा है। कई छोटी चिट फंड कंपनियां तो केवल यही कारोबार करती रही हैं और हकीकत में उनका और कोई निवेश नहीं होता।
पश्चिम बंगाल में शारदा चिटफंड घोटाले में लाखों निवेशकों के करोड़ों रुपये हड़पने वाले कंपनी के चेयरमैन सुदीप्तो सेन के बारे में एक चौंकाने वाला सच सामने आया है। सुदीप्तो चिटफंड के धंधे में आने से पहले नक्सली था। बेहद महत्वकांक्षी सुदीप्तो का नाम तब शंकरादित्य सेन हुआ करता था।1970 में पश्चिम बंगाल में जब नक्सल मूवमेंट पूरे जोर पर था, तब सभी सुदीप्तो को शंकर के नाम से जानते थे। अपनी महत्वकांक्षाओं को पूरा करने के लिए वह रातोरात गायब हो गया और फिर सुदीप्तो सेन की नई पहचान के साथ सामने आया। शारदा ग्रुप के लाखों गरीब निवेशकों को सड़क पर लाने वाला सुदीप्तो तब गरीबों का हमदर्द बना फिरता था। वह जाने-माने नक्सल नेता चारू मजूमदार से कई मौकों पर मिला था। यही नहीं 1971-72 के दौरान कुछ गतिविधियों के लिए वह जेल भी गया।
शारदा चिट फंड में तृणमूल कांग्रेस के मंत्रियों की संलिप्तता पहले ही ममता सरकार की मुश्किलें बढ़ाने वाली थी। अब एक नया मुद्दा जो सामने आया है वह है ममता के भतीजे और तृणमूल यूथ कांग्रेस के नेता अभिषेक बनर्जी की चिट फंड कंपनी चलाने का मुद्दा। खबरों में है कि अभिषेक रीयल स्टेट और माइक्रो फाइनेंस आधारित एक कंपनी के मालिक हैं जिसने बहुत कम समय में 300 करोड़ तक का मुनाफा कमाया है। विरोधी इसे रीयल स्टेट कंपनी के नाम पर चिट फंड कंपनी चलाये जाने की बात कर रहे हैं। उनका कहना है कि कंपनी को न सिर्फ रीयल स्टेट और माइक्रो फाइनेंस का कारोबारी बताया गया है बल्कि इसकी और भी कई शाखाएं हैं।
दरअसल एक मुश्किल यह भी है कि यह चिट फंड कम्पनियां पंजीकृत नहीं होतीं। वे रिक्शा चलाने, दिहाड़ी मजदूरी करने से लेकर भीख मांगने वाले तमाम लोगों को सब्ज-बाग दिखाकर रोजाना या मामूली रकम जमा करने के लिए राजी कर लेती हैं। चूंकि ऐसे निवेश को कोई कानूनी संरक्षण नहीं होता, ये कम्पनियां अपनी वसूली आदि से जुड़ी जानकारियां दुरुस्त रखने के लिए बाध्य नहीं होतीं। फर्जी कागजात के जरिए सारा कारोबार चलता है। इस तरह से धन उगाने का जाल सिर्प चिट फंड कम्पनियों तक ही सीमित नहीं रहा। अब तो इंटरनेट, अखबारों, टीवी पर विज्ञापनों के जरिए छोटे निवेश पर बड़ी कमाई का झांसा देने वाले अनेक गिरोह सक्रिय हैं। ऐसे मामलों में स्पष्ट कानून और नियामक एजेंसियों का अधिकार क्षेत्र निर्धारित न होने के कारण ऐसी कम्पनियां बच जाती हैं। एक समस्या यह भी है कि अलग-अलग मामलों में वित्तीय अनियमितताओं के खिलाफ कार्रवाई की जिम्मेदारी भी अलग-अलग सरकारी एजेंसियों को सौंपी जाती है। इसमें कार्रवाई तभी हो सकती है जब संबंधित कम्पनी पंजीकृत हो। समय आ गया है कि जब सरकार को चिट फंड के गोरख धंधे पर नकेल कसने के लिए एक स्वतंत्र एजेंसी गठित करने के बारे में गम्भीरता से सोचना चाहिए। ममता द्वारा 500 करोड़ का फंड इकट्ठा करना कोई समाधान नहीं। पूरे देश में तो पता नहीं कितने हजारों करोड़ रुपए का यह गोरख धंधा इस समय चल रहा है।

विवेक मनचन्दा,लखनऊ

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply