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हिन्दी सिनेमा के सौ साल और हम

मेरे विचार
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भारतीय सिनेमा तीन मई को अपने सफर के सौ साल पूरे कर रहा है लेकिन इसी बीच हमारे पास अमूल्य सिनेमाई विरासत को खोने का गम भी है। खो चुकी इस अमूल्य विरासत में पहली मूक फिल्म और पहली बोलती फिल्म भी शामिल है।दुनिया में सिनेमा के आने के साथ ही यह भारत में भी आ गया था। फ्रांस के ल्यूमियर बंधुओं ने ‘अराइवल ऑफ ए ट्रेन’ और ‘लीविंग द फैक्ट्री’ आदि मूक दृश्यों की एक पूरी श्रृंखला का प्रदर्शन बॉम्बे (अब मुंबई) के वाटसन होटल में सात जुलाई, 1896 को किया था।
1910 मे मुंबई में फिल्म द लाइफ ऑफ क्राइस्ट के प्रर्दशन के दौरान दर्शकों की भीड़ मे एक ऐसा शख्स भी था जिसे फिल्म देखने के बाद अपने जीवन का लक्ष्य मिल गया। लगभग दो महीने के अंदर उसने शहर मे प्रदर्शित सारी फिल्में देख डाली और निश्चय कर लिया वह फिल्म निर्माण ही करेगा। यह शख्स और कोई नहीं भारतीय सिनेमा के जनक दादा साहब फाल्के थे।
Rajaharishहिन्दी सिनेमा के 100 साल के सफर सुहाना और यादगार रहा है. तीन मई, 1913 को तत्कालीन बंबई के कोरोनेशन थियेटर में भारत की पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चन्द्र’रिलीज हुई थी. यह कभी झूठ ना बोलने वाले अयोध्या के राजा की कहानी थी, जिनकी सत्यवादिता की परख के लिए देवता उनका सबकुछ छीन लेते हैं लेकिन, वह अपनी सत्यवादिता से पीछे नहीं हटते।4 मई, 2013 को, जब भारतीय सिनेमा अपने सौ साल के पहले दिन रूपी पायदान पर पांव रख रहा है ।
भारत में अंगरेज़ों के शासन काल से ही फिल्में बनने का सिलसिला आरम्भ हुआ जिसका सफर मूक, संवाद के साथ मगर श्वेत-श्याम और फिर रंगीन फिलमों के दौर से गुज़रा और आज भी भारतीय फिल्में पूरी दुनिया में बड़े चाव से देखी जाती हैं। लेकिन पुरानी फिल्मों और आज के दौर की फिल्मों में एक बड़ा अंतर है कि जहाँ पुरानी फिल्में समाज के सभी वर्गों को ध्यान में रखकर बनाई जाती थीं वहीं आज का सिनेमा पारिवारिक एवं नैतिक हितों को कई तरह से अनदेखी करता है ।
दादा साहब फाल्के और उनके समकालीन फिल्म निर्माताओं ने पौराणिक कथानक पर फिल्में इसलिए बनायी थीं कि धार्मिक विषय, कहानियां और चरित्र उनके जाने-पहचाने होते हैं। दर्शकों से इनका परिचय कराने के लिए किसी संवाद या कॉमेंट्री की जरूरत नहीं होती।
1931 में ‘आलम आरा’ के जरिये किरदारों को आवाज मिली, इंडियन सिनेमा भिन्न भाषाओं में बंटा ही, प्रदेश और क्षेत्र में भी बदल गया और कथानक भी बदलते चले गये. सामाजिक, स्टंट और हास्य फिल्मों के निर्माण का दौर शुरू हो गया लेकिन यह सोचते हुए अजीब लगता है कि अब, जबकि भारतीय सिनेमा दुनिया का सबसे अधिक फिल्म बनाने वाला देश बन गया है, बॉलीवुड, बांग्ला सिनेमा और तमिल-तेलुगू सिनेमा के जरिये इसकी अपनी पहचान बन गयी है।
मुंबई में दादा साहब फाल्के द्वारा ‘राजा हरिश्चन्द्र’ बनाये जाने के बाद 1917 में तमिल में, 1921 में तेलुगू में तथा 1919 में बांग्ला में फिल्में बनायी जाने लगीं.अन्य मुख्य भाषाओं में भी इसके आसपास ही फिल्मों का निर्माण शुरू हो गया था।
वास्तविकता तो यह है कि भारतीय सिनेमा के इतिहास के कुछ पृष्ठ तो क्षेत्रीय सिनेमा ने ही लिखे गये.मसलन, भारत की पहली त्रिआयामी फिल्म मलयाली भाषा में 1984 में ‘माई डियर कुट्टीछातन’ बनायी गयी।
पहली सवाक फिल्म हिंदी-उर्दू मिश्रित संवादों वाली ‘आलम आरा’ 1931 बनायी गयी।यह दिलचस्प तथ्य है कि हिंदी फिल्म उद्योग को ‘बॉलीवुड’ तो कहा जाता है, लेकिन इसका वैसा कोई भौतिक अस्तित्व नहीं है, जैसे कि अमेरिकी फिल्मों का निर्माण करने वाले ‘हॉलीवुड’ के लिए कहा जाता है कि यह लॉस एंजिल्स में स्थापित है।
भारतीय सिनेमा का विकार्स ढुंडीराज गोविन्द फाल्के जो दादा साहब फाल्के के नाम से अधिक जाने जाते हैं उन्हें भारत की प्रथम स्वदेश निर्मित फीचर फिल्म राजा हरिश्चन्द्र बनाने का श्रेय जाता है। इसी फिल्म ने भारतीय चलचित्र उद्योग को जन्म दिया। 1920 की शुरूआत में हिन्दी सिनेमा धीरे-धीरे अपना नियमित आकार में पनपने लगा। इसी दौरान फिल्म उद्योग कानून के दायरे में भी आ गया। समय के साथ साथ कई नई फिल्म कम्पनियों एवं फिल्म निर्माताओं मसलन धीरेन गांगुली, बाबूराव पेन्टर, सचेत सिंह , चन्दुलाल शाह, आर्देशिर ईरानी और वी शान्ताराम आदि का आगमन हुआ। भारत की प्रथम बोलती फिल्म आलम आरा इम्पीरियल फिल्म कम्पनी ने आर्देशिर ईरानी के निर्देशन में बनाई। इस बोलती फिल्म ने समूचे फिल्म जगत में क्रान्ति ला दी।
पिछली सदी का तीस का दशक भारतीय सिनेमा में सामाजिक विरोध के रूप में जाना जाता है। इस समय तीन बडे-बडे बैनरों प्रभात, बम्बई टॉकीज एवं नया थियेटर ने गंभीर लेकिन मनोरंजक फिल्म दर्शकों के सभी वर्गों को ध्यान में रख कर बनाईं। इस समय सामाजिक अन्याय के विरोध में अनेक फिल्में जैसे – वी शान्ताराम की दुनिया माने ना, आदमी, फ्रान्ज आस्टेन की अछूत कन्या , दामले और फतहलाल की संत तुकाराम, महबूब की बातें, एक ही रास्ता तथा औरत आदि बनीं। प्रथम बार आर्देशिर ईरानी ने रंगीन फिल्म किसान कन्या बनाने का प्रयास किया। दशक जिसमें द्वितीय विश्वयुध्द चल रहा था और दशक जिसमें भारत स्वतन्त्र हुआ, पूरे भारत में सिनेमाग्राफी के लिये भी अविस्मरणीय समय है। कुछ यादगार फिल्में चालीस के दशक में बनीं जिनमें shantaवी शान्ताराम की डॉ कोटनीस की अमर कहानी, महबूब की रोटी, चेतन आनंद की नीचा नगर, उदय शंकर की कल्पना, सोहराब मोदी की सिकन्दर, ‘पुकार, जेबी एच वाडिया की कोई डान्सर, एमएस वासन की चन्द्रलेखा, विजय भट्ट की भरत मिलाप एवं रामराज्य, राजकपूर की बरसात और आग प्रमुख हैं।rajkapoor
1935 पाश्र्व गायन की शुरुआत प्रारंभ में परदे पर नायक-नायिका अपने गीत खुद ही गाते थे।1935 में नितिन बोस ने अपनी फिल्म ‘धूप छांव’ में पाश्र्व गायन की तकनीक इंट्रोड्यूज की। इस तकनीक ने परदे पर कभी नजर ना आने वाले पाश्र्व गायकों-गायिकाओं को भी स्टार बना दिया। ध्वनि तकनीक के विस्तार के साथ ही इन्द्रसभा और देवी देवयानी जैसे गीत संगीत से भरपूर फिल्मों का निर्माण हुआ।
1937 रंगीन हुई फिल्में और मिले अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार फिल्मों के गूंगे चरित्रों को आवाज दिलाने वाले आर्देशिर ईरानी ने ही ‘किसान कन्या’ के तमाम किरदारों में रंग भरे।‘किसान कन्या’ भारत में ही प्रोसेस की गयी पहली फिल्म थी। वास्तविकता तो यह थी कि उस दौर में रंगीन चित्रों को दर्शकों ने मान्यता नहीं दी। सोहराब मोदी की 1953 में रिलीज फिल्म ‘झांसी की रानी’ टेक्नीकलर में बनायी गयी पहली फिल्म थी। विष्णु गोविन्द दामले और शेख फत्तेलाल की फिल्म ‘संत तुकाराम’ ने वेनिस फिल्म महोत्सव में इंटरनेशनल एग्जिबिशन ऑफ सिनेमैटोग्राफिक आर्ट की श्रेणी में चुनी गयी तीन फिल्मों में स्थान पाया।devika
1952 में प्रथम अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह बंबई में आयोजित किया गया जिसका भारतीय सिनेमा पर गहरा प्रभाव पडा। 1955 सत्यजीत रे की पाथेर पांचाली फिल्म से हिन्दी सिनेमा में नया मोड अाया जिसने भारतीय फिल्म को विश्व सिनेमा जगत से जुडने का नया रास्ता दिया। भारतीय फिल्म जगत को अंतर्राष्ट्रीय पहचान तब मिली जब इस फिल्म को अभूतपूर्व देशी-विदेशी पुरस्कारों के साथ-साथ सर्वश्रेष्ठ मानव वृत्त चित्र के लिये केन्स पुरस्कार दिया गया। हिन्दी सिनेमा में नववास्तविकतावाद का प्रभाव तब दिखा जब बिमल रॉय की दो बीघा ज़मीन, देवदास और मधुमती, राजकपूर की बूट पॉलिश, र्श्री420, वी शान्ताराम की दोआँखें बारह हाथ तथा झनक झनक पाायल बाजे एवं महबूब की मदर इण्डिया प्रदर्शित की गई। पचास के दौरान पहली बार भारत-सोवियत के सहयोग से गुरूदत्त की प्यासा तथा कागज़ क़े फूल, बीआरचोपडा की कानून एवं के एअब्बास की परदेसी बनाई गईं। फिल्मों का रंगीन होना और उसके बाद मनोरंजन तथा सितारों पर आधारित फिल्मों से फिल्म उद्योग में पूरा परिवर्तन आगया।
motherindiaसाठ के दशक की शुरूआत केआसिफ की मुगल-ए-आजम से हुई, जिसने बॉक्स-ऑफिस पर नया रिकॉर्ड बनाया। यह ध्यान देने योग्य बात है कि इसमें रोमाटिक संगीत व अच्छी पटकथा का अच्छा समायोजन था। बाद में साठ के दशक में अधिकांशत: सामान्य दर्जे की फिल्में बनीं किन्तु वे भी तत्कालीन भारतीय समाज के चित्र अवश्य प्रस्तुत करती थीं और समाज से प्रभावित भी होतीं थीं। राजकपूर की जिस देश में गंगा बहती है, संगम, dilipkumarदिलीप कुमार की गंगा-जमुना, गुरूदत्त की साहिब बीबी और गुलाम , देव आनन्द की गाईड बिमल रॉय की बन्दिनी, एस मुखर्जी की जंगली, सुनील दत्त की मुझे जीने दो बासु भट्टाचार्य की तीसरी कसम आदि इस दशक की सामाजिक दृष्टि से उल्लेखनीय फिल्में थीं। रामानन्द सागर की आरज़ू, प्रमोद चक्रवर्ती की लव इन टोकियो, शक्ति सामन्त की आराधना, ॠषिकेश मुखर्जी की आशिर्वाद और आनन्द, बीआर चोपडा की वक्त, मनोज कुमार की उपकार, प्रसाद प्रोडक्शन की मिलन साठवें दशक के उत्तर्राध्द की बेमिसाल फिल्में थीं। इनके साथ ही लोकप्रिय सिनेमा का एक नया समय आरंभ हुआ। इस समय के साथ ही भारतीय समाज से फिल्मों में और फिल्मों से भारतीय समाज की ओर आधुनिकता और फैशन की लहर चल पडी। महिलाओं में जागरुकता आई। संगीत के क्षैत्र में साठ-सत्तर के दशकों को फिल्म संगीत का स्वर्णिम समय माना गया, उत्कृष्ट शायरों, गीतकारों के शब्दों को संगीत के विरले कलाकारों ने सुरों का जामा पहनाया। तब का संगीत आज भी अपनी लोकप्रियता में नए संगीत के आगे धूमिल नहीं हुआ है।
sholayसत्तर के दशक में मल्टीस्टार फिल्में आईं। इस दशक की हिट फिल्में थीं कमाल अमरोही की पाकीजा, राजकपूर की बॉबी, रमेश सिप्पी की शोले।नमकहराम के साथ ही bigbअमिताभ बच्चन की फिल्मों का दौर आगया जंजीर, दीवार, खूनपसीना, कभी-कभी, अमर अकबर एन्थॉनी, मुकद्दर का सिकन्दर आदि। इनके अतिरिक्त यादों की बारात, हम किसी से कम नहीं, धर्मवीर मेरा गांव मेरा देश आदि उल्लेखनीय रहीं।
yashअगला दशक यानि अस्सी का दशक सार्थक सिनेमा या नए सिनेमा के आंदोलन के रूप में अपनी चरमसीमा पर था। इस दशक में दर्शकों ने सिनेमा के इस अतिवास्तविक यथार्थ स्वरूप को सराहा हो न हो किन्तु इससे प्रभावित जरूर हुआ, बुध्दिजीवी दर्शकों का एक नया वर्ग तैयार हुआ, और इन फिल्मों को स्वीकारोक्ति मिली। श्याम बेनेगल ने मंथन, भूमिका निशान्त, जूनून और त्रिकाल जैसी समाज विविध ज्वलन्त विषयों का समेटती हुई अच्छी फिल्में दर्शकों को दीं। प्रकाश झा की दामुल सहित अपर्णा सेन की 36 चौरंगी लेन, रमेश शर्मा की नई दिल्ली टाईम्स, केतन मेहता की मिर्चमसाला, विजया मेहता की राव साहेब, उत्पलेन्द चक्रवर्ती की देवशिशु, प्रदीप कृश्पा की मैसी साहब, गुलजार की इजाजत, मुजफ्फ़र अली की उमराव जान, गौतम घोष की दखल, ‘पार, बुध्ददेव दासगुप्त की अन्नपूर्णा, अंधी गली और गिरीश करनाड की उत्सव, तपन सिन्हा की आज का रॉबिनहुड महेश भट्ट की पहली फिल्म अर्थ आदि नए रुझान की फिल्में थीं। डाकू, कैबरे नृत्यों, मारधाड, पेडों के आगे पीछे गाना गाते हीरो-हीरोईन से उबे दर्शकों का जायका बदलने लगा था।
तेलुगू फिल्म उद्योग भारत का दूसरा सबसे बड़ा फिल्म उद्योग है। तेलुगू इंडस्ट्री ने ही मोशन पिक्चर एसोसिएशन ऑफ अमेरिका से वीडियो पाइरेसी के विरुद्ध एमओयू साइन कर रखा है। इस उद्योग का नाम फिल्म निर्माण की सबसे अधिक सुविधा उपलब्ध कराने वाली इंडस्ट्री के रूप में गिनीज बुक ऑफ र्वल्ड रिकार्डस में दर्ज है।
जहाँ तक सिनेमा और समाज के आपसी सम्बंधों की बात है तो अब तक के अनुभवों से यह सिद्ध हो गया है कि दोनों अपनी-अपनी सीमा तक एक दूसरे को प्रभावित करते हैं । हर दशक का सिनेमा तेज़ी से परिवर्तित होते समाज को दर्शाता है । सिनेमा और समाज एक दूसरे के पूरक भी हैं । व्यक्ति थोड़ी देर के लिये ही सही, अपने दुखपूर्ण संसार से बाहर आ जाता है।जिस प्रकार साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है उसी प्रकार सिनेमा भी समाज का दर्पण बनता दिखाई दे रहा है ।
सिनेमा और समाज का रिश्ता बहुत गहरा है। सिनेमा समाज से प्रेरित होता है और समाज में रहने वाले लोग सिनेमा से प्रभावित होते हैं। भारत में सिनेमा और समाज के इसी महत्वपूर्ण, पर जटिल सम्बन्ध पर चर्चा करने के लिए सेमिनारों-गोष्ठियों का आयोजन होता रहता है।फिल्मकार, फिल्म समीक्षक, फिल्म पत्रकार व फिल्म देखनेवाले आपस में सिनेमा और समाज पर चर्चा करते हैं। भारत में अनेकों भाषा बोली जाती है। कई प्रकार के धर्म को मानने वाले लोग यहां रहते हैं। हर प्रान्त का अपना रहन-सहन और अपनी धारणाएं हैं। फिर भी हम एक हैं। यही भाव हमारे सिनेमा में भी देखने को मिलता है।
भारत में सिनेमा सब के मन को छूने की क्षमता रखता है। वह इसलिए कि सिनेमा हमारे अन्दर दबी भावनाओं, इच्छाओ व आशाओं से मेल खाता है। सिनेमा के पर्दे पर जनमानस अपने आप को, अपनी जिन्दगी को, अपनी खुशी व गम को देखते हैं और उसमें डूब जाते हैं। यहां हमारी विविधता में ही समानता है। और यही मंत्र हमारा सिनेमा अपनाता है। यह भारतीय सिनेमा का ही कमाल है कि अब हर शादी में चाहे वह बंगाल में हो या चैन्नई में, मारवाड़ में हो या उड़ीसा में, लोगों के पांव थिरकते हैं तो पंजाबी-भांगड़ा गानों पर!
कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और गुजरात से लेकर अरूणाचल तक लोगों को एक संग जोड़ने में भारतीय सिनेमा का बहुत बड़ा योगदान है। मुम्बई में बनी फिल्में दर्शकों को आपस में बांधती हैं। प्रत्येक फिल्म अपनेआप में विभिन्न प्रांतों या प्रदेशों के लोगों का एक-दूसरे से घुलने-मिलने का नतीजा है। हमारी मायानगरी में आपको पूरे भारत का नजारा मिल सकता है।
समय-समय पर इन फिल्मों ने हमारे समाज को कैसे प्रभावित किया है। दरअसल हमेशा यह कहना कठिन होता है कि समाज और समय फिल्मों में प्रतिबिम्बित होता है या फिल्मों से समाज प्रभावित होता है। दोनों ही बातें अपनी-अपनी सीमाओं में सही हैं। कहानियां कितनी भी काल्पनिक हों कहीं तो वो इसी समाज से जुडी होती हैं। यही फिल्मों में भी अभिव्यक्त होता है। लेकिन हां बहुत बार ऐसा भी हुआ है कि फिल्मों का असर हमारे युवाओं और बच्चों पर हुआ है सकारात्मक और नकारात्मक भी। किन्तु ऐसा ही असर साहित्य से भी होता है। क्रान्तिकारी साहित्य ने स्वतन्त्रता संग्राम में अनेक युवाओं को प्रेरित किया था। मार्क्स के साहित्य ने भी कई कॉमरेड, नक्सलाईट खडे क़र दिये। अत: हर माध्यम के अपने प्रभाव होते हैं समाज पर। फिल्मों के भी हुए।
नकारात्मक प्रभाव इस प्रकार सामने आए कि फिल्म एक दूजे के लिए का क्लाईमेक्स दृश्य देख कई प्रेमी युगलों ने आत्महत्या कर ली थी। यहां तक कि इस फिल्मी रोमान्स ने युवक युवतियों के मन में प्रेम और विवाह के प्रति कई असमंजस डाल दिये हैं कि वे वास्तविक वैवाहिक जीवन में सामन्जस्य नहीं कर पाते। कुछ अश्लील किस्म के गीतों ने ईव-टीजींग आम कर दी है। ओए-ओए, ‘ सैक्सी-सैक्सी मुझे लोग बोलें, मेरी पैन्ट भी सैक्सी, आती क्या खण्डाला आदि।
अगर हम अनेकता (विविधता) में एकता (समानता) के भाव को भारत के प्राचीन इतिहास व स्वतंत्रता संग्राम से जोड़ कर देखें तो हमें ज्ञात होता है कि यह भाव हमारी मूल संस्कृति का निचोड़ है। हमसब भारतीय हैं और ‘ऐ मेरे वतन के लोगों’ जैसे गीत फिल्म से निकलकर सीधे दिल में उतर जाते हैं। मन में गर्व का भाव उत्पन्न कराते हैं। इसी एकता के भाव को दर्शक फिल्मों में देखते हैं।
हिन्दी फिल्मों का बाजार जैसे-जैसे विस्तृत हुआ, देश का युवा बेरोजगार आँखों में सपने लेकर अपनी किस्मत आजमाने या तो प्रशिक्षण प्राप्त कर या सीधे घर से भाग कर मुम्बई आने लगे। उनमें से एक दो सफल हुए, शेष लौट गए या बर्बाद हो गए। युवाओं में फिल्मों में अपना कैरियर बनाने के लिए इतना आकर्षण देख फर्जी निर्माता-निर्देशकों की तथा प्रशिक्षण केन्द्रों की बाढ सी आ गई है।
दादा साहब फाल्के की फिल्म की नायिका तारामती श्मशान का कर चुकाने के लिए अपनी धोती फाड़ने को तैयार हो जाती हैं। लेकिन, देवता तारामती को अधनंगा होता नहीं देख सकते। पर सौ साल बाद बॉलीवुड के मापदड़ बदल गये। एक फिल्म निर्माता विक्रम भट्ट देह व्यापार को प्रोत्साहित करने वाली फिल्म ‘हेट स्टोरी’ के साथ दर्शकों के सामने होते हैं। उनकी फिल्म की नायिका काव्या को अधनंगा क्या, पूरा नंगा होने तक में कोई हिचक नहीं।
आज भारतीय सिनेमा के कथानक में गिरावट आती जा रही है जिसका सीधा असर आज समाज पर रहा है। ये कहना गलत न होगा कि इन 100 सालों की यात्रा भारतीय सिनेमा ने जितने मुकाम हासिल किये उतना ही इसने समाज को गलत दिशा भी दी। आज हमारी बॉलीवुड की फिल्में सेक्स, थ्रिल, धोखे के काकटेल पर बन रही हैं। ऐसी फिल्में हिट भी हो रही हैं, लेकिन यही फिल्में जब ऑस्कर जैसे प्रतिष्ठित आवार्ड के लिए जाती हैं तो औंधे मुंह गिर पड़ती हैं। इसके विपरीत स्लमडाग जैसी फिल्में जो कि सामजिक मुद्दों पर बनती है, वो आस्कर जैसे अवार्ड को ला पाने में सफल होती है। कहने का तात्पर्य यह कि विदेशों में भी अब ऐसी ही फिल्मों को पसंद किया जा रहा है, जो किसी सामाजिक सरोकारों से जुडी हो।
भारत सरकार की एक कमेटी ने भी टिप्पणी की है कि फिल्में अब कंटेंट के मामले में खराब हो गयी हैं।चूंकि, फिल्में अब एक सौ करोड़ को अपना लक्ष्य बना रही हैं तो इसलिए वह कंटेंट के बजाय स्टारडम और धुआंधार प्रचार और दुष्प्रचार तथा हजारों की संख्या में स्क्रीन पर कब्जा कर वीकेंड में ही एक सौ करोड़ का लक्ष्य पा लेना चाहती हैं। हिंदी सिनेमा के इतिहास को चंद शब्दों में उकेर पाना नामुमकिन है। आज हिंदी सिनेमा जिस मुकाम पर पहुँच चुका है उसे देखकर हम सबको गर्व होना चाहिए ।

विवेक मनचन्दा,लखनऊ

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