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“मेरे पास माँ है ”

मेरे विचार
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maaदुनिया ही क्या समूची सृष्टि में मां को सर्वाधिक महत्व दिया गया है। पशु-पक्षी जगत से लेकर मानव जगत में मां की महिमा अपरंपार है। सृष्टि के प्रत्येक प्राणी को जन्म देने वाली मां को विश्‍व की समस्त संस्कृतियों में सबसे बड़ा दर्जा दिया गया है। भारत में तो मातृ पूजा हजारों साल से चली आ रही है। हम तो धरती को भी मां के रूप में पूजते हैं। दरअसल जिन स्थानों पर मनुष्य का जीवन भोजन के लिए प्रकृति पर अधिक निर्भर रहा, वहां के लोगों ने स्त्री की उर्वरता, पोषण की सामर्थ्य, ममता और सृजनात्मकता को नमन करते हुए मातृशक्ति की कल्पना की। माँ, समूची धरती पर बस यही एक रिश्ता है जिसमें कोई छल कपट नहीं होता। कोई स्वार्थ, कोई प्रदूषण नहीं होता। इस एक रिश्ते में निहित है अनंत गहराई लिए छलछलाता ममता का सागर। शीतल, मीठी और सुगंधित बयार का कोमल अहसास। इस रिश्‍ते की गुदगुदाती गोद में ऐसी अनुभूति छुपी है मानों नर्म-नाजुक हरी ठंडी दूब की भावभीनी बगिया में सोए हों। माँ, इस एक शब्द को सुनने के लिए नारी अपने समस्त अस्तित्व को दाँव पर लगाने को तैयार हो जाती है। नारी अपनी संतान को एक बार जन्म देती है। लेकिन गर्भ की अबोली आहट से लेकर उसके जन्म लेने तक वह कितने ही रूपों में जन्म लेती है। यानी एक शिशु के जन्म के साथ ही स्त्री के अनेक खूबसूरत रूपों का भी जन्म होता है। ‘माँ’ शब्द की पवित्रता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि हिन्दू धर्म में देवियों को माँ कहकर पुकारते है। बेटी या बहन के संबोधनों से नहीं। मदर मैरी और बीवी फातिमा का ईसाई और मुस्लिम धर्म में विशिष्ट स्थान है।
नारी जननी है, जो अपने एक संतति को जन्म देने के लिए लाखों शारीरिक और मानसिक कष्टों का सामना करती है। एक संतान को जन्म देने से पहले और उसके जन्म के बाद अपना जीवन, खुशियां उसी के नाम कर देती है। अपना खून (दूध) पिलाकर बच्चे को पोषित करती है। भावी पीढ़ी में नैतिकता के बीज बोती है। महान लेखक मैरी मैक्लॉयड ने कहा है कि किसी नस्ल का सच्चा मूल्य उसके नारीत्व के लक्षण से मापा जाना चाहिए। नारी ही इस समाज का प्रारंभिक गुरु है। वही अपने संस्कार, सोच, विचार, भाषा आदि अगली पीड़ी को निशुल्क उपलब्ध कराती है। एक सच्ची मार्गदर्शिका बन कर अपने परिवार को, समाज को सुख और उन्नति की राह पर अग्रसर करती है।
माँ के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए एक दिवस नहीं एक सदी भी कम है। किसी ने सच ही कहा है ना कि सारे सागर की स्याही बना ली जाए और सारी धरती को कागज मान कर लिखा जाए तब भी माँ की महिमा नहीं लिखी जा सकती। भारत में जहां मां को शक्तिरूपा माना जाता है और गाय को उसका प्रतिरूप, वहीं ग्रीक संस्कृति में मां को गैया कहा जाता था। बौद्ध धर्म में तो भगवान बुद्ध के स्त्रीरूप में देवी तारा की महिमा गाई जाती है। रंग और विशेषताओं के अनुसार देवी तारा के दर्जनों रूपों की पूजा की जाती है। यहूदियों की बाइबिल के अनुसार कुल 55 पैगंबर धरती पर आए उनमें से 7 स्त्रियां थीं। ईसाई समुदाय में तो मदर मैरी की महिमा का लंबा इतिहास है और प्रभु यीशु की माता को सर्वोपरि माना गया है। यूरोप के कई देशों में, खास तौर पर ब्रिटेन और आयरलैंड में तथा पुराने ब्रिटिश उपनिवेशी देशों में मदरिंग सण्डे मनाने की परंपरा आज भी विद्यमान है। वैसे अगर गौर से देखा जाए तो दुनिया के विभिन्न धर्मों में बहुत से ऐसे ईश्‍वर या देवदूत हुए हैं, जिन्हें मां ने ईश्‍वरीय इच्छा के लिए जन्म दिया, फिर वो चाहे राम हों, कृष्ण हों, ईसा मसीह हों, भगवान महावीर हों अथवा गणेश।
इस्लाम में मां को बहुत उच्च स्थान दिया गया है। पैगंबर मोहम्मद साहेब का कहना था कि जन्नत का दरवाजा मां के कदमों में है। अर्थात्‌ जिसने मां को नाराज किया या दुख पहुंचाया तो ऐसे इंसान को जन्नत में जगह नहीं मिलती। एक बार एक व्यक्ति ने पैगंबर मोहम्मद साहेब से पूछा कि हे खुदा के पैगंबर, मुझे समझाओ कि मैं किसके प्रति सम्मान और प्रेम प्रकट करूं? मोहम्मद साहेब ने कहा, ‘तुम्हारी मां।’ व्यक्ति ने फिर पूछा, ‘इसके बाद?’ मोहम्मद साहेब ने कहा, ‘तुम्हारी मां।’ उस आदमी ने फिर से पूछा, ‘इसके बाद?’ मोहम्मद साहेब ने कहा, ‘तुम्हारी मां।’ बंदे ने चौथी बार पूछा, ‘और उसके बाद?’ मोहम्मद साहेब ने कहा, ‘अपने पिता के प्रति।’ इस्लामी देशों में मोहम्मद साहेब की बेटी फातिमा के जन्मदिन को मातृत्व का दिवस माना जाता है। बहुत से अरब देशों में 21 मार्च को मातृदिवस मनाया जाता है।
वर्तमान समय की नारी जागरूक व शिक्षित है। आज वह सुशिक्षित होकर अपने जीवन को सार्थक करना चाहती है। इसके लिए वह अपनी इच्छानुसार कार्य चुनती है और उसे पूर्ण समर्पण, निष्ठा एवं तन्मयता से करती है। मां के पास दो आंखें नहीं वरन् चार आंखें होती हैं। उसका दिमाग दसों जगह दौड़ता है। मां व नारी एक ही समय में अनेक कार्यों को उत्कृष्ट तरीके से कर सकती हैं। इसलिए आज नारी अधिकतर क्षेत्र में सफल है। अपने क्षेत्र में सफल होने के साथ ही वह एक मां भी है और इन सबके साथ मां की भूमिका को न सिर्फ अच्छी तरह से बल्कि सर्वश्रेष्ठ तरीके से निभा रही है। शिक्षित होने के कारण वह विश्व में घट रही सभी घटनाओं व परिवर्तनों से वाकिफ है।
बच्चों को किस उम्र में क्या शिक्षा देनी है, वह जानती है। आज अनेक सफल मांएं ऐसी हैं जो स्वयं तो अपने कार्यक्षेत्र में सफल हैं ही ,उनके बच्चे भी अपने कार्यक्षेत्र में सफलता के परचम फहरा रहे हैं । मां के त्याग, संघर्ष, ममता व प्रेम के बिना बच्चों की सफलता असंभव है। मां की पोशाक बदलने से उसका स्वभाव, ममता व प्रेम नहीं बदला। आज मां साड़ी, सूट-सलवार, स्कर्ट या जींस कुछ भी पहने लेकिन उसके सीने में मां की तड़प, उसकी ममता, वैसा प्रेम और दुलार आज भी बरकरार है।
‘माँ’ की ममता और उसके आँचल की महिमा का को शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता है, उसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है। नौ महीने तक गर्भ में रखना, प्रसव पीड़ा झेलना, स्तनपान करवाना, रात-रात भर बच्चे के लिए जागना, खुद गीले में रहकर बच्चे को सूखे में रखना, मीठी-मीठी लोरियां सुनाना, ममता के आंचल में छुपाए रखना, तोतली जुबान में संवाद व अटखेलियां करना, पुलकित हो उठना, ऊंगली पकड़कर चलना सिखाना, प्यार से डांटना-फटकारना, रूठना-मनाना, दूध-दही-मक्खन का लाड़-लड़ाकर खिलाना-पिलाना, बच्चे के लिए अच्छे-अच्छे सपने बुनना, बच्चे की रक्षा के लिए बड़ी से बड़ी चुनौती का डटकर सामना करना और बड़े होने पर भी वही मासूमियत और कोमलता भरा व्यवहार…..ये सब ही तो हर ‘माँ’ की मूल पहचान है। इस सृष्टि के हर जीव और जन्तु की ‘माँ’ की यही मूल पहचान है।
हमारे वेद, पुराण, दर्शनशास्त्र, स्मृतियां, महाकाव्य, उपनिषद आदि सब ‘माँ’ की अपार महिमा के गुणगान से भरे पड़े हैं। असंख्य ऋषियों, मुनियों, तपस्वियों, पंडितों, महात्माओं, विद्वानों, दर्शनशास्त्रियों, साहित्यकारों और कलमकारों ने भी ‘माँ’ के प्रति पैदा होने वाली अनुभूतियों को कलमबद्ध करने का भरसक प्रयास किया है। इन सबके बावजूद ‘माँ’ शब्द की समग्र परिभाषा और उसकी अनंत महिमा को आज तक कोई शब्दों में नहीं पिरो पाया है।
हमारे देश भारत में ‘माँ’ को ‘शक्ति’ का रूप माना गया है और वेदों में ‘माँ’ को सर्वप्रथम पूजनीय कहा गया है। इस श्लोक में भी इष्टदेव को सर्वप्रथम ‘माँ’ के रूप में की उद्बोधित किया गया है:
‘त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या च द्रविणम त्वमेव, त्वमेव सर्वमम देव देवः।।’

रामायण में भगवान श्रीराम अपने श्रीमुख से ‘माँ’ को स्वर्ग से भी बढ़कर मानते हैं। वे कहते हैं कि ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गदपि गरीयसी।’
(अर्थात, जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है।)
महाभारत में जब यक्ष धर्मराज युधिष्ठर से सवाल करते हैं कि ‘भूमि से भारी कौन?’ तब युधिष्ठर जवाब देते हैं ‘माता गुरूतरा भूमेः।’
(अर्थात, माता इस भूमि से कहीं अधिक भारी होती हैं।)
मशहूर फ़िल्मकार यश चोपड़ा की दीवार 1975 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है । यश चोपड़ा निर्मित दीवार हिन्दी सिनेमा की सबसे सफलतम फिल्मों मे से है जिसने अमिताभ के “एंग्री यंग मैन” के खिताब को स्थापित कर दिया। इस फिल्म ने अमिताभ के करियर को नयी बुलंदियों पर पहुँचा दिया। इस फिल्म के ज्यादातर हिस्से में अमिताभ बच्चन का अभिनय जबर्दस्त रहा था मगर फिल्म का वह हिस्सा जहाँ शशि कपूर अमिताभ बच्चन से कहते हैं “मेरे पास माँ है ” आज तक हिंदी सिनेमा के सबसे बढ़िया संवादों में माना जाता है ।इस एक संवाद में ही शशि कपूर ने दर्शकों की वाहवाही लूटी थी ।
बहुत खुशनसीब होते हैं वह लोग जिनके पास उनकी माँ होती है।धरती पर ईश्वर का दूसरा रूप माँ में है ।एक जमाना था, जब श्रवण कुमार जैसे पुत्र ने अपने अंधे माता-पिता की सेवा में अपने प्राण न्योछावर कर दिए थे। आधुनिक श्रवण कुमार आधुनिकता के आकर्षण में धन कमाने की अंधीदौड़ में वृद्ध माता-पिता को जीवन के अंतिम दौर में अकेले रहने को विवश कर रहे हैं। माता-पिता की छाया में ही जीवन सँवरता है। माता-पिता, जो निःस्वार्थ भावना की मूर्ति हैं, वे संतान को ममता, त्याग, परोपकार, स्नेह, जीवन जीने की कला सिखाते हैं।
आज आधुनिकता और पैसे कमाने की दौड़ में लोग अपने माँ -बाप को बोझ समझने लगे हैं ।आजकल एकल परिवारों के चलते परिवार विघटित हो रहे हैं ।पर जो लोग अपने माँ-बाप की सेवा करते हैं उनका मान-सम्मान करते हैं उनसे ज्यादा सुखी व्यक्ति दुनिया में कोई नहीं हो सकता है।
हमारे समाज में हर बात को महत्व देने के लिए 365 दिनों में से सिर्फ ‘एक दिन’ तय कर दिया गया हैं, पर माँ को महत्व देने के लिए सिर्फ एक दिन काफी नहीं हैं। जिस तरह माँ की ममता और प्रेम ‘असीमित और नि:स्वार्थ’ है, उसी तरह माँ के लिए हर दिन एक महत्व लिए होना चाहिए, और सिर्फ दिन ही क्यों बल्कि हर क्षण वह हमारे लिए महत्वपूर्ण होनी चाहिए।
अगर हम भी बिना किसी स्वार्थ के उन्हें आदर देकर, माँ की ममता को भूले बिना और उनका हर सुख-दु:ख में साथ दें, तो अपना जीवन सार्थक बना सकते है।मां की अंगुली पकडक़र ही तो कई बार गिर-गिर और संभल कर हम चलना सीखते हैं। विफलताओं की ठोकर लगने पर मां के कोमल स्पर्श मात्र से शरीर में एक नई शक्ति का संचार हो जाता है। मगर कुछ मां ऐसी भी है जो बदनसीब हैं। क्या बीतती होगी उस माँ पर जिसने नौ महीने तक पेट में जिस बच्चे को पाला आज वह बूढ़ी मांओं का खर्च उठाने को तैयार नहीं है।यदि आपके पास भी माँ है तो दुनिया के सबसे सौभाग्यशाली व्यक्तियों में से एक है। अपने पास इस माँ रूपी ईश्वर को हमेशा साथ रखें।

विवेक मनचन्दा,लखनऊ

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