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यूपीए-2 के चार साल:उपलब्धियां कम, दाग ज्यादा

मेरे विचार
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मनमोहन सरकार ने अपनी दूसरी पारी में चार साल पूरे कर लिए हैं। मनमोहन सिंह जब दूसरी बार प्रधानमंत्री बने थे तो उन्होंने जनता से कई वादे किए। हालांकि पिछले कुछ सालों में वादों की कम और घोटाले की ज्यादा चर्चा हुई।
सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली जिस सरकार ने अपनी पहली पारी में कई उल्लेखनीय उपलब्धियां हासिल की थी, वह दूसरी पारी में अलोकप्रिय साबित हो चुकी है।चार वर्षो का यह सफर काफी उतार-चढ़ाव भरा कहा जा सकता है। इस दौरान देश ने आर्थिक से लेकर राजनीतिक मोर्चे तक पर गंभीर चुनौतियों का सामना किया है।सरकार के पिछले चार साल के कामकाज को लेकर लोगों की राय अलग-अलग है. जहां सत्ता पक्ष को अपनी उपलब्धियों पर गर्व है, वहीं विपक्ष इस सरकार को हर मोर्चे पर पूरी तरह नाकाम बता रहा है।
सच यह है कि दूसरी पारी में सामने आए घोटालों और सरकार की अक्षमता ने उसके अच्छे कामों पर भी पानी फेर दिया। संप्रग की पहली सरकार से लोगों को बहुत ज्यादा उम्मीदें नहीं थीं, लेकिन उसने कई अच्छे कदम उठाए थे।अपने चार साल के इस कार्यकाल में यूपीए सरकार विफल रही है। यूपीए की पिछली सरकार ने घरेलू एवं अंतरराष्ट्रीय मसलों से निपटने के लिए कई नए प्रयोग किए थे।
मसलन, एक तरफ जहां उसने मनरेगा जैसी योजना चलाई, वहीं दूसरी तरफ वाम दलों के विरोध के बावजूद उसने अमेरिका के साथ परमाणु समझौता किया। नए प्रयोग की वजह से ही यूपीए दोबारा सत्ता में आई।दूसरी पारी में यूपीए सरकार को नई चुनौतियों से जूझने के लिए नए प्रयोग का जोखिम उठाना चाहिए था, लेकिन वह अपनी विफलता का ठीकरा सहयोगी दलों पर ही फोड़ती रही।
इन चार सालों में इनकी सरकार को विपक्षी दलों के अलावा जन विरोध का भी सामना करना पड़ा है। देश के साथ-साथ विदेशी जमीन पर भी मनमोहन सिंह की साख कमज़ोर हुई। टाईम्स पत्रिका ने इन्हें अंडर एचिवर तक लिख डाला।एक के बाद एक सामने आये घोटाले से यूपीए टू और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की छवि धूमिल हुई। और विपक्षी दल प्रधानमंत्री के इस्तीफे की तक की मांग करने लगे।
बावजूद इसके मनमोहन सरकार पांचवे साल में कदम रखने जा रही है, सितारे कहते हैं कि मनमोहन सिंह अपना कार्यकाल पूरा कर लेंगे। लेकिन, इस सरकार को आने वाले चुनाव में जन समर्थन नहीं मिलने से सत्ता से दूर रहना पड़ सकता है ।
आर्थिक सुधार के दम पर देश को तरक्की की राह पर ले जाने के वादों की भी पोल खुल गयी है।बीते चार वर्षो में आर्थिक विकास दर बढ़ाने के लिए ऐसी नीतियां अमल में लायी गयीं, जिसके कारण अर्थव्यवस्था की हालत खराब हो गयी है। विकास के नाम पर निजी कंपनियों को प्राकृतिक संसाधनों की लूट की छूट के कारण देश में कई तरह की आंतरिक समस्याएं पैदा हो गयी।
सरकारी नीतियों के कारण देश में गरीबी की दर भले न बढ़ी हो, लेकिन महंगाई के कारण आम लोगों की थाली से जरूरी चीजें गायब होती गयी हैं। इस सरकार ने आम लोगों की जरूरतों की सभी चीजों की कीमतों में इजाफा कर दिया। बेकाबू हुई महंगाई के कारण आम लोगों का जीना मुश्किल हो गया है। ऐसा लगता है कि सरकार देश की आर्थिक नीतियां विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के इशारे पर बना रही है।
यूपीए 2 और भ्रष्टाचार का चोली दामन का रिश्ता रहा है। जब से यूपीए 2 सत्ता में आई है तब से ही सरकार एक के बाद एक घोटालों में फंसती जा रही है। भ्रष्टाचार में लिप्त होने की वजह से न सिर्फ सरकार और देश को जिल्लत का सामना करना पड़ा है बल्कि अपने पांच मंत्रियों से भी सरकार को हाथ धोना पड़ा है।2-जी घोटाले में दोषी पूर्व संचार मंत्री ए राजा, इसी मामले में ही दोषी केंद्रीय कपड़ा मंत्री दयानिधि मारन, कोलगेट मामले में स्टेटस रिपोर्ट बदलवाने के आरोपी कानून मंत्री अश्विनी कुमार, रेल घूसकांड मामले में रेल मंत्री पवन कुमार बंसल और कामनवेल्थ घोटाले में आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी जैसे मंत्रियों से सरकार को हाथ धोना पड़ा है। इन मंत्रियों की विदाई के साथ सरकार को फजीहत भी झेलनी पड़ी है।
यूपीए-2 के चार साल के कार्यकाल में ऐसे कई मुश्किल मौके आए, जब लगा कि सरकार खतरे में है। लेकिन इन सबके बावजूद सरकार चलती रही। इसे सबसे बड़ी उपलब्धि माना जाना चाहिए। इन बरसों में टीएमसी और डीएमके जैसे बड़े घटक दलों ने सरकार से किनारा कर लिया। 2जी विवाद, जेपीसी बनाने को लेकर हुआ सदन में हंगामा और भ्रष्टाचार के मुद्दों पर कई बार ऐसा लगा कि सदन में सरकार नंबर गेम में पिछड़ जाएगी। फिर भी सरकार नंबर गेम में हारी नहीं, तो इसका श्रेय कांगेस और यूपीए के रणनीतिकारों को जाता है।
भ्रष्टाचार, घोटाले और महंगाई जैसे तमाम मोर्चों पर जूझने के बावजूद यूपीए-2 अपने शासनकाल में प्रमुख विपक्षी दल बीजेपी से राजनैतिक जमीन छीनने में कामयाब रही। एक ओर जहां बीजेपी को हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और कर्नाटक जैसे राज्यों में पटखनी दी, वहीं केंद्र में बीजेपी सहित दूसरी पार्टियों को खुद पर हावी नहीं होने दिया। कई दफा तो ऐसा लगा कि विपक्ष की भूमिका विपक्षी पार्टियों से ज्यादा सरकार के घटक दल या सोशल मूवमेंट निभा रहे हैं।
ग्लोबल आर्थिक मंदी के दौर में जहां दुनिया की बड़ी-बड़ी अर्थव्यवस्था गच्चा खा गईं, वहीं सरकार ने एक के बाद एक एहतियाती कदम उठाकर भारतीय अर्थव्यवस्था को संभाले रखा।
अपने चार साल पूरे कर चुकी सरकार अब पूरी तरह से चुनावी मूड में दिखाई देने लगी है। आगे के लिए उसका लक्ष्य जहां एक ओर अपने बचे हुए कामों और योजनाओं को प्राथमिकता के आधार पर उनके अंजाम तक पहुंचना रहेगा, वहीं दूसरी ओर वह इन चार सालों में अपने किए गए कामों की रिपोर्ट जनता को देना चाहेगी। अपनी उपलब्धियों की जानकारी लोगों तक पहुंचाने की कवायद तो सरकार ने भारत निर्माण कैंपेन के जरिए शुरू कर ही दी है। आने वाले दिनों में सरकार अपने सहयोगियों और विपक्ष के दबाव से निकलकर खाद्य सुरक्षा बिल , भूमि सुधार सहित कुछ आर्थिक बिलों को पास कराकर आने वाले लोकसभा चुनाव में सत्ता में बने रहने का रास्ता बनाएगी।केंद्र सरकार के बचे हुए समय में राजनीतिक चुनौतियां काफी बड़ी होंगी। मगर पार्टी को आने वाले कुछ महीनों में ही कई टेस्ट जमीन पर पास करने होंगे। दिल्ली, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव कांग्रेस के लिए आम चुनाव से पहले असल फ्लोर टेस्ट साबित होंगे। छवि बेहतर बनाने व जन कल्याण के एजेंडे पर पार्टी को पूरी ताकत लगानी है।

विवेक मनचन्दा,लखनऊ

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