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नक्सलियों के साथ अब शठे शाठ्यम समाचरेत की नीति अपनाई जानी चाहिए

मेरे विचार
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छत्तीसगढ़ के जगदलपुर में कांग्रेस के काफिले पर नक्सली हमले ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया है। इस हमले में जिंदा बचे लोगों और घटनास्थल पर पहले पहल पहुंचने वाले पत्रकारों ने जो मंजर बयां किया है, वह दिल दहला देने वाला है।कांग्रेसी नेताओं का काफिला घने जंगल से होकर गुजर रहा था। नक्सलियों ने सड़क पर पेड़ काटकर सड़क को बंद कर दिया था और खुद जंगल में छिप गए थे। जैसी ही गाड़ियां रुकीं, नक्सलियों ने हमला बोल दिया। चारों तरफ से नक्सलियों से घिर जाने के बावजूद सुरक्षा बल देर तक मुकाबला करते रहे। इस दौरान हाहाकर मच चुका था। कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता अपनी जान बचाने के लिए इधर-उधर भाग रहे थे और कहीं पर भी ओट मिलने पर छिपने की कोशिश कर रहे थे। कुछ लोग गाड़ियों की डिक्की में छिप गए तो कुछ मरने का दिखावा करते हुए लेट गए। इसी बीच सुरक्षा बलों की गोलियां खत्म हो गईं। इस पर नक्सलियों ने कहा कि आपके पास कोई और चारा नहीं है, सरेंडर कर दो। नक्सलियों की बर्बरता की गवाह बनी गत 25 मई ,की शाम क्या कुछ हुआ था, यह अब निकलकर सामने आ रहा है। नक्सली जब खून की होली खेलने पर आमादा थे, तब पुलिस के जांबाज जवान आखिरी गोली तक लड़ रहे थे।नक्सलियों ने परिवर्तन यात्रा से लौट रहे कांग्रेस के काफिले पर चारों तरफ से घेरकर छत्तीसगढ़ के सुकमा में अचानक हमला कर दिया। इसमें प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष नंद कुमार पटेल, उनके बेटे दिनेश पटेल और महेंद्र कर्मा समेत कुल 29 लोगों की मौत हो गई है। कांग्रेस के दिग्गज नेता विद्याचरण शुक्ल को भी पीठ में तीन गोलियां लगी हैं। उन्हें गुड़गांव के मेदांता अस्पताल लाया गया है और फिलहाल उनकी हालत स्थिर है।
नक्सलियों के हमले का जवाब देते हुए कांग्रेस नेता विद्याचरण शुक्ला के पीएसओ आखिरी वक्त तक लड़ते रहे। इस हमले में जब पीएसओ के पास अंतिम गोली बची, तो उन्होंने शुक्ला से कहा, ‘आखिरी गोली बची है। अब आपकी सुरक्षा नहीं कर सकता, इसलिए माफ कीजिए।’ इसके बाद उसने खुद को गोली मार ली। उसकी मौके पर ही मौत हो गई।
Naksal aTTACKहथियारों से लैस नक्सलियों ने सभी को इकट्ठा करके बंधक बना लिया। नक्सलियों ने बंधकों से उनकी पहचान पूछी और मारना शुरू कर दिया। जैसे ही नक्सलियों ने कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और सलवा जुडूम शुरू करने वाले महेंद्र कर्मा को पहचाना, उन्हें अलग कर लिया। नक्सलियों ने उन्हें बंधक बनाए गए लोगों के सामने बड़ी ही बेरहमी से पीटा और टॉर्चर किया। बंधक बने लोगों के पास इस मंजर को चुपचाप बैठे देखते रहने के सिवा और कोई चारा नहीं था। कई तरह की यातनाएं देने के बाद आखिर में महेंद्र कर्मा को सभी के सामने मौत के घाट उतार दिया गया।नक्सलियों के सिर पर खून सवार था। उन्होंने न सिर्फ सरेंडर करने वाले लोगों पर गोलियां चलाईं, बल्कि सुरक्षा बलों और इधर-उधर छिपे लोगों को भी ढूंढ-ढूंढकर मारना शुरू कर दिया। कुछ लोग बचने के लिए कार की डिक्की में छिप गए थे। नक्सलियों ने उन्हें वहां से भी निकालकर गोली मार दी।
प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया कि हमला करने आए नक्सलियों के ग्रुप में 15 महिला सदस्य भी थीं। वे भी बाकी नक्सलियों की ही तरह लोगों को ढूंढकर निशाना बना रही थीं। कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं को निशाना बनाने के बाद नक्सली आराम से वहां से चले गए। जिस जगह पर इस घटना को अंजाम दिया गया, वह घने जंगल में है और यहां पहुंचना भी इतना आसान नहीं।
बस्तर का शेर कहे जाने वाले कांग्रेस नेता महेंद्र कर्मा की हत्या करने के बाद नक्‍सलियों ने क्रूरता की सारी हदें पार कर दी थीं। नक्सलियों से लोहा लेने के लिए सलवा जुडूम को शुरू करने वाले कर्मा को गोलियों से छलनी करने के बाद नक्‍सलियों ने उनकी मौत पर जश्न मनाया। हमले में घायल हुए लोगों ने अस्पताल में बताया कि कर्मा की लाश को घेरकर वे देर तक नाचते रहे और बार-बार बंदूक के बट से लाश को मारकर अपना गुस्‍सा शांत किया।
इतना ही नहीं, सुकमा में कांग्रेस की परिवर्तन रैली पर हमला करके मौत का नंगा नाच करने के बाद नक्‍सली कई शवों के अंग भी काट कर अपने साथ ले गए। घटनास्‍थल पर कई शवों की आंखें गायब थीं।
छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर हुए हमले के बाद कई सवाल हवा में तैर रहे हैं। ये सवाल राजनीति, सुरक्षा और क़ानून व्यवस्था से जुड़े हुए हैं। इनमें आरोप प्रत्यारोप है और नाराज़गी भी।राजनीतिक दलों के नेता एक बार फिर ‘लोकतंत्र पर हमले’ का नारा उछाल रहे हैं।आमतौर पर ऐसे नारे किसी गंभीर सवाल को हल्का कर देते हैं क्योंकि लोगों के मन में एक धारणा बनी हुई है कि हमारे नेता लोकतंत्र को सत्ता हासिल करने का ज़रिया भर मानते हैं।सवाल पूछे जा रहे हैं कि नेता मारे गए तो लोकतंत्र याद आया लेकिन जब सुरक्षाकर्मी मारे जाते हैं तब क्या लोकतंत्र ख़तरे में नहीं पड़ता?सवाल ये भी हैं कि जिस बस्तर में 12 में से 11 विधानसभा सीटों पर भाजपा की जीत हुई हो, जहाँ कांग्रेस का सांसद न हो वहाँ कांग्रेस के नेताओं से इतनी नाराज़गी क्यों? जो पार्टी पिछले दस बरसों से विपक्ष में बैठी हुई हो उससे नक्सलियों का ऐसा बैर?महेंद्र कर्मा ज़रुर नक्सलियों के कट्टर दुश्मन रहे हैं लेकिन ये हमला सिर्फ़ कर्मा पर हुआ हमला नहीं है।
इन हमलों को इस समय भले ही कांग्रेस नेताओं पर हमले के रूप में देखा जा रहा है। लेकिन जो नक्सली सिद्धांतों और दुश्मन की उनकी परिभाषा से अवगत हैं वो जानते हैं कि ये सिर्फ़ संयोग हो सकता है कि हमले के शिकार हुए नेता कांग्रेस पार्टी के थे। हो सकता था कि उनकी जगह भाजपा के नेता होते।नक्सली आख़िरकार हर राजनीतिक दल को अपना दुश्मन ही मानते हैं और उनकी लोकतंत्र में आस्था ही नहीं।यही वजह है कि बस्तर में नक्सलियों ने भाजपा के वरिष्ठ सांसद बलीराम कश्यप के राजनीतिक बेटे की हत्या की थी। इससे पहले पश्चिम बंगाल में बुद्धदेव भट्टाचार्य और आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू पर भी हमले हो चुके हैं।
अप्रैल, 2010 में दंतेवाड़ा के जगरगुंडा इलाके में सीआरपीएफ के काफिले पर हुआ हमला, जिसमें 78 जवान मारे गए थे, सुरक्षा बलों पर नक्सलियों का सबसे भीषण हमला था, तो 25 मई को दरभा क्षेत्र के जीरम घाटी में कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर हुआ हमला किसी भी राजनीतिक गतिविधि के खिलाफ सबसे बड़ा नक्सली हमला कहा जा सकता है, जिसमें वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं सहित 29 लोग मारे गए।ये दोनों घटनाएं यह बताने के लिए काफी हैं कि न सरकारें न ही सुरक्षा बल और न ही राजनीतिक संगठन माओवादियों की रणनीतियों और उनकी ताकत को ठीक से आंक सके हैं।हर नक्सली हमले के बाद सबसे पहला सवाल यही खड़ा होता है कि सुरक्षा में कहां चूक हुई। खुफिया तंत्र कहां नाकाम हो गया? इस हमले ने एक बार फिर साबित किया है कि सरकारी खुफिया तंत्र के मुकाबले नक्सलियों का अपना आंतरिक तंत्र काफी मजबूत है, जिसके जरिये उन्हें पहले खबर हो जाती है।
‘सत्ता बंदूक से निकलती है‘ के सिद्धांत पर यकीन करने वाले नक्सलवाद का जन्म 25 मई 1967 को पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी में ज़मीनदार और किसानों के दरम्यान जमीन के झगड़े से हुआ। जिसमें पुलिस की गोली से 11 किसानों की मौत हो गई थी। नक्सलवादी संघर्ष का नेतृत्व कानू सान्याल और चारू मजूमदार ने संभाला। 21 सितबंर 2004 को पीपुल्स वार ग्रुप और माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर के विलय के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) गठन हुआ। इनका सैनिक संगठन पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी (पीएलजीए) काफी मजबूत है। गरीबों और शोषितों को इंसाफ दिलाने का दावा करने वाले नक्सलियों को भारतीय लोकतंत्र पर विश्‍वास नहीं है। वे चुनावों का बहिष्कार करते हैं। बदलते वक्त के साथ नक्सलवाद का ढ़ांचा और विचारों में परिवर्तन हो चुका है।
नक्सलवाद कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के उस आंदोलन का अनौपचारिक नाम है जो भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के फलस्वरूप उत्पन्न हुआ। नक्सल शब्द की उत्पत्ति पश्चिम बंगाल के छोटे से गाँव नक्सलबाड़ी से हुई है जहाँ भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के नेता चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने 1967 मे सत्ता के खिलाफ़ एक सशस्त्र आंदोलन की शुरुआत की। मजूमदार चीन के कम्यूनिस्ट नेता माओत्से तुंग के बहुत बड़े प्रशंसकों में से थे और उनका मानना था कि भारतीय मज़दूरों और किसानों की दुर्दशा के लिये सरकारी नीतियाँ जिम्मेदार हैं जिसकी वजह से उच्च वर्गों का शासन तंत्र और फलस्वरुप कृषितंत्र पर वर्चस्व स्थापित हो गया है। इस न्यायहीन दमनकारी वर्चस्व को केवल सशस्त्र क्रांति से ही समाप्त किया जा सकता है। 1967 में “नक्सलवादियों” ने कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों की एक अखिल भारतीय समन्वय समिति बनाई। इन विद्रोहियों ने औपचारिक तौर पर स्वयं को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से अलग कर लिया और सरकार के खिलाफ़ भूमिगत होकर सशस्त्र लड़ाई छेड़ दी। 1971 के आंतरिक विद्रोह (जिसके अगुआ सत्यनारायण सिंह थे) और मजूमदार की मृत्यु के बाद यह आंदोलन एकाधिक शाखाओं में विभक्त होकर कदाचित अपने लक्ष्य और विचारधारा से विचलित हो गया।
कुछ समय पहले तक नक्सलवाद को सामाजिक-आर्थिक समस्या माना जाता रहा है,मगर अब इसने चरमपंथ की शक्ल अख्तियार कर ली है। नक्सलवाद का जन्म पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले में नेपाल की सीमा से लगे एक कस्बे नक्सलबाड़ी में गरीब किसानों की कुछ माँगों जैसे भूमि सुधार और बड़े खेतिहर किसानों के अत्याचार से मुक्त्ति को लेकर शुरू हुआ था। वर्तमान में नक्सलियों के संगठन पीपुल्स वार ग्रुप और माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) दोनों मुख्यतः बिहार, झारखंड, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में सक्रिय हैं, जिनका शुमार पिछड़े व गरीब राज्यों में होता है। पीडब्लूजी का दक्षिणी राज्य आंध्र के पिछड़े क्षेत्रों में बहुत प्रभाव है।नक्सलवादी नेताओं का हमेशा आरोप रहा है कि भारत में भूमि सुधार की रफ्तार बहुत सुस्त है। उन्होंने आँकड़े देकर बताया कि चीन में 45 प्रतिशत जमीनें छोटे किसानों में बाँटी गई हैं तो जापान में 33 प्रतिशत, लेकिन भारत में आजादी के बाद से तो केवल 2 प्रतिशत ही जमीन का आवंटन हुआ है।
एमसीसी और पीडब्लूजी संगठनों की हिंसक गतिविधियों के चलते इनसे प्रभावित कई राज्यों ने पहले ही प्रतिबंध लगा रखा है। इनमें बिहार और आंध्रप्रदेश प्रमुख हैं। इन राज्यों के खेतिहर मजदूरों के बीच इन चरम वामपंथी गुटों के लिए भारी समर्थन पाया जाता है। इस खेप में अब छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश भी आ चुके है। छत्तीसगढ़ का बस्तर जिला, जिसकी सीमाएँ आंध्रप्रदेश से लगी हुई हैं, में नक्सलवादी आंदोलन गहराई तक अपनी पैठ जमा चुका है।
प.बंगाल से शुरू हुआ नक्सलवाद अब उड़ीसा, महाराष्ट्र, झारखंड और कर्नाटक में भी पैर पसार चुका है। प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह भी इस पर अपनी चिंता जाहिर कर चुके हैं और इससे निपटने के लिए केन्द्र से हर सम्भव सहायता देने का वादा कर चुके हैं, पर अब तक सरकार की ढुलमुल नीतियों व केंद्र-राज्य में सामंजस्य न होने का फायदा उठाकर बीते सालों में नक्सलवादियों ने पुलिस और विशेष दल के जवानों पर घात लगाकर किए जाने वाले हमले एकाएक बढ़ा दिए हैं।साल 2011 में जहां नक्सली वारदातों में 611 लोग मारे गए थे, वहीं 2012 में 409 लोग मारे गए थे, इनमें 113 सुरक्षा बल के जवान और 296 स्थानीय नागरिक शामिल थे, अगर साल 2010 पर नजऱ डालें, तो हताहत होने वालों की संख्या 1005 थी, लेकिन ग़ौर करने वाली बात ये है कि सुरक्षा बलों और माओवादियों के बीच चल रहे संघर्ष में ज्यादा नुकसान आम लोगों का ही हुआ है।आज कई नक्सली संगठन वैधानिक रूप से स्वीकृत राजनीतिक पार्टी बन गये हैं और संसदीय चुनावों में भाग भी लेते हैं, लेकिन बहुत से संगठन अब भी इस लड़ाई में लगे हुए हैं। नक्सलवाद के विचारधारात्मक विचलन की सबसे बड़ी मार आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ, उड़ीसा, झारखंड, और बिहार को झेलनी पड़ रही है।विद्रोह को तो पुलिस ने कुचल दिया था, लेकिन उसके बाद के दशकों में मध्य और पूर्वी भारत के कई हिस्सों में नक्सली गुटों का प्रभाव बढ़ा है, इनमें झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, बिहार, छत्तीसगढ़ और आंध्र प्रदेश जैसे राज्य शामिल हैं।
भारत के कुल छह सौ से ज्यादा जिलों में से एक तिहाई नक्सलवादी समस्या से जूझ रहे हैं। आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक अन्य वर्षों की तुलना में वर्ष 2012 में नक्सली वारदातों में काफी कमी आई, चाहे वो छत्तीसगढ़ हो, झारखण्ड, ओडिशा, बिहार, महाराष्ट्र या फिर आंध्र प्रदेश। नक्सलियों का दावा है कि वो आदिवासियों की लड़ाई लड़ रहे हैं।नक्सलवाद की नींव रखने वाले चारू मजुमदार और कनु सान्याल के मन में सत्ता के खिलाफ सशस्त्र आन्दोलन शुरुआत करने का विचार तभी आया होगा जब उन्होंने संभवतः यह महसूस किया होगा कि भारतीय मजदूरो और किसानो की दुर्दशा के लिए सरकारी नीतिया जिम्मेदार है,और उसी के कारण उच्च वर्गों का बोलबाला हो गया है।और शायद सौ फीसदी वे गलत भी नहीं है। अतः निश्चय ही आज ये सशस्त्र विद्रोह नक्सलवाद का उग्र रूप धारण कर चुका है, जो देश के लिए एक सबसे बडा खतरा बनकर मंडरा रहा है। कितने दुख की बात है कि हमारे सामाजिक तत्व ही समाज विरोधी बन रहे हैं, और वो सब कुछ करने को तैयार है जो राष्ट्र हित में नहीं है, चाहे कारण जो भी हो? मगर प्रश्न ये है कि इसके लिए जिम्मेदार कौन? क्यों उठा ऐसा तूफान? क्या ये भी सच नहीं कि रक्षक की भक्षक बने बैठे हैं? अब विडम्बना ऐसी है कि केंद्र सरकार ने नक्सलवाद के खात्मे के लिए 40000 जवान तैयार किये हैं, और दूसरी तरफ विकास के नाम पर 7300 करोड का प्रावधान किया है ।
यह बात और है कि नक्सलियों के अंध समर्थक और छद्म मानवाधिकारवादी उनकी भ‌र्त्सना करने के लिए तैयार नहीं। यह कहीं अधिक खतरनाक है, क्योंकि सिर्फ विकृत मानसिकता वाले स्वार्थी तत्व ही ऐसी बर्बरता पर मौन रह सकते हैं। जो गरीबों के हक की लड़ाई लड़ने का दावा करते हैं और यह भी कहते हैं कि वे एक विचारधारा से संचालित हैं। यदि कोई विचारधारा इतनी घृणित और पतित हो सकती है तो फिर उसे विचारधारा कहना इस शब्द का अपमान है। क्या इससे भद्दा मजाक और कोई हो सकता है कि नक्सली यह कहते हैं कि वे समाज को समतामूलक बनाने के साथ हर किसी को उचित सम्मान दिलाना चाहते हैं? सरकारें काफी समय तक नक्सलवाद को कानून और व्यवस्था की समस्या कह कर इसकी भयावहता का सही अंदाजा लगाने में नाकामयाब रही हैं। या फिर सब कुछ पता होते हुए कारगर कदम नहीं उठाए गए हैं। नक्सल समस्या से निबटने के लिए आवंटित धनराशि इतने वर्षों से पानी में बहाई जा रही है। आदिवासी क्षेत्रों में समावेशी विकास की बातें करने वाली सरकारों की कथनी और करनी के अंतर की उचित समीक्षा भी जरूरी है।नक्सलवाद के विचारधारात्मक विचलन की सबसे बड़ी मार आँध्र प्रदेश, छत्तीसगढ, उड़ीसा, झारखंड, और बिहार को झेलनी पड़ रही है।नक्सलवाद से जुझती सरकारों की हालत भी पतली हो रही है । विकास के लिए आरक्षित धनराशि का एक बड़ा हिस्सा पुलिस और सैन्य व्यवस्था के नाम पर व्यय हो रहा है जो अनुत्पादक है।इससे तरह-तरह की नया भ्रष्ट्राचार भी पनप रहा है।यदि खबरों पर विश्वास करें तो नक्सल प्रभावित लोगों के लिए प्रायोजित राहत के नाम पर फिर से बाजारवादी और लूट-घसोट में विश्वास रखने वाले ठेकेंदारों को नई उर्जा मिल रही है ।
केवल सरकारी आंकड़ों पर गौर करें तो पिछले पांच वर्षों के दौरान नक्सली हिंसा में 3,000 हजार से भी ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं। जिसमें आम नागरिकों के अलावा सुरक्षा बलों की भी एक लंबी फेहरिस्त है। नक्सली हिंसा की सबसे अधिक घटनाएं इससे प्रभावित चार राज्यों छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा और बिहार में हुई है। इस दौरान माओवादियों ने छोटी बड़ी करीब 6,500 से अधिक घटनाओं को अंजाम दिया है। प्रभावित राज्यों के अतिरिक्त अन्य राज्यों में भी नक्सलियों के पांव पसारने की खुफिया रिपोर्ट के बाद सरकार को इससे निपटने के लिए नई रणनीति बनाने पर मजबूर कर दिया है।अगर पिछले कुछ घटनाओं पर नजर ड़ाले तो स्पष्ट हैकि 2008 में नक्सल की कुल 1591 घटनाएं हुई 721 व्यक्ति मारे गए। हर वर्ष लगभग 1500 से ज्यादा घटनाएं घटित हो रही है और औसतन 700 से ज्यादा लोग मारे जा रहे है। फिर भी इसका हल नही निकल पा रहा है जबकि झारखण्ड़ में पुलिस इंसपेक्टर फ्रांसिस इदुवार का गला काटकर हत्या कर दी गई थी। सरकार तो सक्रिय है लेकिन राज्य सरकार के आगे नतमस्तक सी हो जाती है। आज पूरे देश में नक्सलियों की घटनाएं चरम पर है। जब सरकार आपरेशन ग्रीन हंट चला रही है तो नक्सली भी ऐसी क्रूर घटनाओं को अंजाम देकर उन्हे सीधे चुनौती दे रहे है। अगर इनकी चुनौती को कबूल नही किया गया या सरकार कठोर कदम नही उठाती है तो अंजाम भुगतते रहना होगा। जब माओपंथी देश के 13 से ज्यादा राज्यों में युद्धरत है वही करीब 50,000 नक्सली प्रशिक्षित है जो ऐसी रक्तरंजित घटनाओं को अंजाम देते है। यही नहीं सबसे ज्यादा छत्तीसगढ़ के 25000 गॉवों में इनकी सत्ता बरकरार है। दक्षिण की ओर आन्ध्र प्रदेश के बारंगल, करीमनगर, नालमल्ला, पालनाडु, उत्तरी तेंलगाना में इनका राज्य है। वहीँ बिहार में भी इनकी सत्ता के आगे राज्य सरकार बेबस है लगभग 38 जिलों में से 34 जिलों में इनका दबदबा है और ये वहां पर पूरी तरह सुरक्षित है। झारखण्ड़ में तो एक तिहाई से ज्यादा क्षे़त्र नक्सलियों के कब्जे में है ऐसा ही कुछ हाल उत्तर प्रदेश का भी है सोनभद्र मिर्जापुर सहित लगभग 800 गॉवों में नक्सलियों का कब्जा है। वहां के आदिवासी भी सरकार से ज्यादा नक्सलियों पर भरोसा करते है। फिर भी सरकार इनको तलाशने में असमर्थ है।नक्सलियों से निपटने के लिए सरकार द्वारा चलाया गया ऑपरेशन ग्रीन हंट से समस्या सुलझने की बजाए और पेचिदा ही हुआ है। इस ऑपरेशन में नक्सलियों को जितना नुकसान नहीं पहुंचा उससे अधिक उनके जवाबी हमले में सरकार ने अपने सिपाही खोए हैं। दंतेवाड़ा में नक्सलियों की वह लोमहर्षक घटना जिसमें अबतक के सबसे बड़े नक्सली हमले में 73 से ज्यादा सुरक्षाकर्मी मारे गए थे। बस्तर से लगा दंतेवाड़ा नक्सलियों के लिए सबसे अधिक सुरक्षित क्षेत्र है। जो घने जंगलों के साथ साथ पड़ोसी राज्य महाराष्ट्र, उड़ीसा और आंध्रप्रदेश की सीमा से लगा हुआ है। नक्सली इस जंगल के चप्पे-चप्पे से वाकिफ हैं जबकि सरकार ने उनसे लोहा लेने वाले वैसे सुरक्षाकर्मियों को मोर्चे पर लगा रखा है जिन्हें क्षेत्र की विशेष जानकारी नहीं होती है। ऐसे में वह माओवादियों द्वारा किए गए अचानक हमलों या गुरिल्ला हमलों का जवाब देने के लिए तैयार नहीं हो पाते हैं।
नक्सली संगठन देश के खनिज संपदा और वनों उत्पादों पर कब्जा करने वाले संगठित गिरोह की तरह हो गए हैं। कुछ दिनों पहले ही उड़ीसा के मलकानगिरी में नक्सलियों ने वहां के जिलाधिकारी, आर.बी.कृष्ण के अपहरण के बाद जो शर्ते रखीं थीं उसके तहत अपने 700 साथियों की रिहाई के साथ एक बहुराष्ट्रीय कंपनी द्वारा संचालित जल संबंधी परियोजना के सभी अनुबंधों को तोड़ने की मांग की थी। इससे साफ जाहिर होता है कि नक्सली आंदोलन किस तरह से बेकाबू हो चुका है और वे अपनी मनमर्जी चलाना चाहते हैं।
नक्सलवादियों से पूरी कड़ाई से निपटने की जरूरत हैं। नक्सलवाद से आंतरिक सुरक्षा को बहुत ही गंभीर खतरा पैदा हो गया है। देश की सुरक्षा का एक बड़ा हिस्सा नक्सलवादियों से निपटने में खर्चा हो जाता है लेकिन एक समुचित नीति के अभाव और नक्सलवादियों से निपटने वाली पुलिस कंपनियों के स्थानीय लोगों और वहां की ज्योग्राफी की जानकारी के अभाव से वे नक्सलियों से लड़ाई में पिछड़ जाते हैं।
नक्सलियों का भारतीय संविधान में कोई विश्वास नहीं है। पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से चला ये आंदोलन अब गलत लोगों के हाथों में पड़ चुका है और आवश्यकता है कि कड़ाई से इससे निपटा जाए। कभी गरीबों के नाम पर शुरू हुआ यह आंदोलन अपने रास्ते से भटक चुका है।केंद्र सरकार नक्सल समस्या को राज्यों के कार्यक्षेत्र में बताकर इससे पल्ला झाड़ लेती है लेकिन इससे समस्या कमने के बजाए बढ़ती ही जा रही है। इसलिए जरूरी है कि सभी पक्ष मिलकर इस पर कार्यवाई करे और नक्सलियों के प्रति कोई ढ़िलाई नहीं बरती जाए।

विवेक मनचन्दा,लखनऊ

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