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विश्व पर्यावरण दिवस:5 जून पर विशेष

मेरे विचार
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आज हर जगह विकास के कार्यों के लिए जिस चीज को सबसे ज्यादा बलि देनी पड़ रही है वह हैं पेड़। पेड़ जो हमारे जीवन तंत्र या यों कहें पर्यावरण के सबसे अहम कारक हैं वह लगातार खत्म होते जा रहे हैं। आलम यह है कि आज हमें घनी आबादी के बीच कुछेक पेड़ ही देखने को मिलते हैं और इसकी वजह से पृथ्वी का परिवर्तन चक्र बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। इसके साथ हमने अत्यधिक गाड़ियों का इस्तेमाल कर वायु को प्रदूषित किया है जिसने पर्यावरण को अत्यधिक हानि पहुंचाई है।
हमारे इस पर्यावरण में हो रहा क्षरण आज दुनिया की सबसे बडी समस्याओं में से एक है। लेकिन यह कहना कि पर्यावरण को हानि बहुत पहले से पहुंच रही है गलत होगा। दरअसल पर्यावरण की यह हानि कुछेक सौ सालों पहले ही बड़े पैमाने पर शुरू हुई। गाड़ियों का धुंआ, कारखानों की गंदगी, नालियों का गंदा पानी इन सब ने हमारी आधारभूत जीवन की जरूरत पर प्रभाव डाला। वायु, जल और धरातल के दूषित होने से संसार में कई बीमारियों ने जन्म लिया।
औद्योगिक क्रांति के बाद से वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में 40 फीसदी वृद्धि हुई है। इसका प्रमुख कारण है आधुनिक जीवन शैली। आज हम भारी मात्रा में जीवाश्म ईंधनों और लकड़ी इत्यादि को जलाकर कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करते हैं। जबकि कटते जंगल से कार्बन डाइऑक्साइड का अवशोषण कम हो गया है।
पर्यावरण एवं प्रकृति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।जनसामान्य के लिए जो प्रकृति है उसे ही विज्ञान पर्यावरण कहता है ।मोटे तौर पर जल, जंगल, जमीन , हवा, सूर्य का प्रकाश, रात का अंधकार और अन्य जीव-जन्तु सभी हमारे पर्यावरण के भिन्न तथा अभिन्न अंग हैं । जीवित और मृत को जोड़ने का काम सूर्य की शक्ति करती है । प्रकृति जो हमेंजीने के लिए स्वच्छ वायु, पीने के लिए साफ शीतल जल और खाने के लिए कंद, मूल, फल एवं शिकार उपलब्ध कराती रही है वही अब संकट में है । आज उसकी सुरक्षा का सवाल उठ खड़ा हुआ है । यह धरती माता आज तरह- तरह के खतरों से जूझ रही है । आज से कोई 100-150साल पहले घने जंगल थे । कल- कल बहती स्वच्छ सरिताएं थी ।निर्मल झील एवं पावन झरने थे । हमारे जंगल तरह-तरह के जीव जंतुआें से आबाद थे और तो और जंगल का राजा शेर भी तब इनमें निवास करता था । आज ये सब ढूंढे नहीं मिलते हैं । नदियां प्रदूषित कर दी गई हैं ? झील – झरने सूख रहे हैं । जंगलों से पेड़ और वन्य जीव गायब होते जा रहे हैं ।
पर्यावरण के नुकसान में केवल वायु का ही नुकसान नहीं हुआ है बल्कि प्रदूषण ने हमारे पीने योग्य पानी को भी दूषित किया है और मिट्टी को भी दूषित कर दिया है। नतीजन हमारे खाने की थाली और पीने के गिलास में दूषित वस्तुओं का आना लगातार कई सालों से जारी है और आगे तो हालत इससे भी गंभीर होने वाली है।
पर्यावरण को हो रहे नुकसान को देखते हुए ही संयुक्त राष्ट्रसंघ ने साल 1972 से हर साल 05 जून को विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में मनाने का निर्णय किया। इसका मुख्य उद्देश्य पर्यावरण के प्रति जागरूकता लाते हुए राजनीतिक चेतना जागृत करना और आम जनता को प्रेरित करना था। भारत में पर्यावरण संऱक्षण अधिनियम सर्वप्रथम 19 नवम्बर, 1986 को लागू हुआ था, जिसमें पर्यावरण की गुणवत्ता के मानक निर्धारित किए गये थे।
यूरोपीय देशों की अधिकांश झीलें अम्लीय वर्षा के कारण मर चुकी हैं । उनमें न तो मछली जिंदा बचती है न पेड़- पौधे । सवाल यह है कि इन पर्यावरणीय समस्याआें का क्या कोई हल है ? क्या हमारी सोच में बदलाव की जरूरत है ? दरअसल प्रकृति को लेकर हमारी सोच में ही खोट है ।तमाम प्राकृतिक संसाधनों को हम धन के स्त्रोत के रूप में देखते हैं और अपने स्वार्थ की खातिर उनका अंधाधुंध दोहन करते हैं । हम यह नहीं सोचते कि हमारे बच्चें को स्वच्छ व शांत पर्यावरण मिलेगा या नहीं । वर्तमान स्थितियों के लिए मुख्य रूप से हमारी कथनी और करनी का फर्क ही जिम्मेदार है। एक ओर हम पेड़ों की पूजा करते हैं तो वहीं उन्हें काटने से भी जरा नहीं हिचकते । हमारी संस्कृति में नदियों को माँ कहा गया है परन्तु इन्हीं माँ स्वरूपा गंगा-जमुना की हालत किसी से छिपी नहीं है। इनमें हम शहर का सारा जल-मल, कूड़ा – करकट, हारफूल यहां तक कि शवों को भी बहा देते हैं । नतीजन अब देश की सारी प्रमुख नदियां गंदे नालों में बदल चुकी हैं । पेड़ों को पूजने के साथ उनकी रक्षा का संकल्प भी हमें उठाना होगा । पर्यावरण रक्षा के लिए कई नियम भी बनाए गए हैं । हमें यह सोच भी बदलनी होगी कि नियम तो बनाए ही तोड़ने के लिए जाते हैं । पर्यावरणीय नियम का न्यायालय या पुलिस के डंडे के डर से नहीं बल्कि दिल से सम्मान करना होगा । सच पूछिए तो पर्यावरण की सुरक्षा से बढ़कर आज कोई पूजा नहीं है । प्रकृति का सम्मान ईश्वर के प्रति सच्ची श्रद्धा होगी ।याद रहे हम प्रकृति से हें, प्रकृति हमसे नहीं ।विज्ञान के इस युग में मानव को जहां कुछ वरदान मिले है, वहां कुछ अभिशाप भी मिले हैं। प्रदूषण एक ऐसा अभिशाप हैं जो विज्ञान की कोख में से जन्मा हैं और जिसे सहने के लिए अधिकांश जनता मजबूर हैं।
बढ़ती जनसंख्‍या, कटते पेड, बढ़ते उद्योग-धंधे, वाहनों के प्रयोग, जानकारी का अभाव, बढ़ती गरीबी ने पर्यावरण असंतुलन को बढ़ाया है। पर्यावरण के प्रति जागरूक होकर हम इस पर्यावरण असंतुलन को कम कर सकते हैं। इसके लिए जरूरी है कि हम शुरुआत अपने घर से करें और समाज में भी यह संदेश फैलाएं।
भारत को विश्व में सातवें सबसे अधिक पर्यावरण की दृष्टि से खतरनाक देश के रूप में स्थान दिया गया है। वायु शुद्धता का स्तर ,भारत के मेट्रो शहरों में पिछले 20 वर्षों में बहुत ही ख़राब रहा है डब्ल्यूएचओ के अनुसार हर साल 24 करोड़ लोग खतरनाक प्रदूषण के कारण मर जाते हैं। पूर्व में भी वायु प्रदुषण को रोकने के अनेक प्रयास किये जाते रहे हैं पर प्रदुषण निरंतर बढ़ता ही रहा है ।
वायु प्रदूषण के प्रकार: प्रदूषण को आन्तरिक और बाह्य में वर्गीकृत किया जा सकता है। आन्तरिक वायु प्रदूषण का मुख्य कारण का तथ्य यह है कि 75% ग्रामीण घरों में लकड़ी, फसल अवशेषों और बायोमास ईंधन का उपयोग करने से उत्पन्न प्रदूषित हवा हैं।: बाहरी वायु प्रदूषण के मुख्य कारण वाहन उत्सर्जन, निर्माण मलबे से औद्योगिक प्रदूषण, धूल, नगर कचरा जल कारणों में इन प्रदूषकों परिणाम की तरह के लिए कारण हैं। वायु प्रदूषण का एक परिणाम कोयला और डीजल के रूप में ग्लोबल वार्मिंग की समस्या के रूप में है। जीवाश्म ईंधन , प्रदूषित जल ,कार और पावर प्लांट सबसे बड़े अपराधियों की तरह हैं ।। वाहन उत्सर्जन देश वायु प्रदूषण का 70% के लिए जिम्मेदार हैं।
वायु प्रदूषण के प्रभाव: अपशिष्ट डंपिंग। से झीलों और महासागरों, या नदियों के जल निकायों से उत्पन्न अतिसार जैसे जल जनित रोगों के परिणाम हैं। दस्त असुरक्षित और कम मात्रा में पानी, अस्वच्छता और गरीब स्वच्छता पीने का परिणाम है। वायु प्रदूषण, अस्थमा जैसे साँस रोगों में वृद्धि के साथ, ब्रोंकाइटिस ,वायु प्रदूषण क्रोनिक प्रतिरोधी फुफ्फुसीय रोग (सीओपीडी) का सबसे महत्वपूर्ण कारण है पर हैं। कोयला ,और डीजल और जीवाश्म जैसे ईंधन के जलने, चावल की फसल में चिंताजनक मंदी के कारण हैं। वायु प्रदूषण आधुनिक दिनों में ग्लोबल वार्मिंग का एक मुद्दा है।
पर्यावरण के किसी भी तत्व में होने वाला अवांछनीय परिवर्तन, जिससे जीव जगत पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, प्रदूषण कहलाता है। पर्यावरण प्रदूषण में मानव की विकास प्रक्रिया तथा आधुनिकता का महत्वपूर्ण योगदान है। यहाँ तक मानव की वे सामान्य गतिविधियाँ भी प्रदूषण कहलाती हैं, जिनसे नकारात्मक फल मिलते हैं। उदाहरण के लिए उद्योग द्वारा उत्पादित नाइट्रोजन आक्साइड प्रदूषक हैं। हालाँकि उसके तत्व प्रदूषक नहीं है। यह सूर्य की रोशनी की ऊर्जा है जो कि उसे धुएँ और कोहरे के मिश्रण में बदल देती है।
प्रदूषण दो प्रकार का हो सकता है। स्थानीय तथा वैश्विक। अतीत में केवल स्थानीय प्रदूषण को समस्या माना जाता था। उदाहरण के लिए कोयले के जलाने से उत्पन्न धुऑं, अत्यधिक सघन होने पर प्रदूषक बन जाता है। जो कि स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। स्कूल कॉलेजों में एक नारा सिखाया जाता था कि प्रदूषण का समाधान उसे हल्का कर देना है। सिद्धान्त यह था कि विरल-कम-प्रदूषण से कोई हानि नहीं होगा। हाल के दिनों में हुयी शोधों से लगातार चेतना बढ़ रही है कि कुछ प्रकार का स्थानीय प्रदूषण, अब समस्त विश्व के लिए खतरा बन रहा है जैसे आणविक विस्फोटों से उत्पन्न होने वाली रेडियोधर्मिता। स्थानीय तथा वैश्विक प्रदूषणों की चेतना से पर्यावरण सुधार आन्दोलन प्रारम्भ हुये हैं। जिसके कि मनुष्य द्वारा की गयी गतिविधियों से, पर्यावरण को दूषित होने से बचाया जा सके, उसे कम से कम किया जा सके।
अत्यधिक उपभोग के कारण ही दुनियाभर में हजारों-हजार शहर प्रतिदिन लाखों-करोड़ों टन कचरा पैदा करते हैं जिसे आम तौर पर खुले में डम्प किया जाता है। इससे भी धरती का तापमान बढ़ता है। मीथेन गैस तो इन कचरे के ढेरों से खूब निकलती है और इस गैस की क्षमता कार्बन डाइऑक्साइड के मुकाबले 21 गुना ज्यादा खतरनाक ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन करने की है। मीथेन गैस उत्सर्जन पर नियंत्रण जरूरी होने के मद्देनजर इस विषय पर भी गौर करना होगा कि हम अपने शहरों के कचरे का निपटारा कैसे करें और शहरों पर बोझ कैसे कम करें। गांधी और थोरो के दर्शन के हिसाब से सरल जीवन पकृति अपनाकर इस मसले का हल बड़ी सीमा तक खोजा जा सकता है। ऐसे में वर्ष 2050 में 10 अरब लोगों की जरूरतें कैसे पूरी होंगी? फिर से इस्तेमाल हो सकने वाले ऊर्जा स्रोत ही आने वाले समय में समाधान के तौर पर दिखायी देते हैं। इंटरनैशनल रिन्यूएबल एनर्जी एजेंसी (इरेना) के नाम से 26 जनवरी 2009 को जर्मनी में गठित संस्था इन्हीं प्रश्नों के हल निकालने में लगी है। स्वच्छ ऊर्जा की ओर बढ़ना इस एजेंसी का लक्ष्य है। आज की तारीख में ऊर्जा की 18 प्रतिशत पूर्ति रिन्यूएबल एनर्जी से ही होती है। भविष्य में इसे बढ़ाना नितांत आवश्यक है। इरेना की स्थापना में भारत की भूमिका सराहनीय रही है। अब उसे रिन्यूएबल ऊर्जा स्रोतों के संवर्धन की दिशा में काम करने की जरूरत है
विश्व की कुल आबादी का एक तिहाई हिस्सा अपनी जीविका और स्वच्छ जल के लिए निर्भर है। इन नदियों में भारत की गंगा और सिंधु के अलावा चीन की यांत्सी, मेकांग और साल्वीन, ऑस्ट्रेलिया की मुरे डार्लिंग, दक्षिण अमरीका की लॉ प्लाटा और रियो ग्रांडे तथा यूरोप की डेन्यूब शामिल हैं।
विश्व की दस बड़ी नदियों पर सूखने का खतरा मंडरा रहा है। मौत के कगार पर खड़ी इन नदियों में हमारी गंगा भी हैं।यदि हालात नहीं सुधारे गए तो बीस साल बाद गंगा का अस्तित्व इतिहास की धरोहर हो जाएगा।यह खुलासा विश्व वन्यजीव कोष (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) की एक रिपोर्ट में किया गया।गंगा के बिना भारत का अस्तित्व कल्पनातीत है, लेकिन लगता है यह कल्पना हकीकत में बदलने जा रही है।
इन नदियों को दुनिया मे स्वच्छ मीठे जल का एकमात्र सबसे बड़ा जल स्त्रोत बताया गया है। ये नदियां सिर्फ मनुष्यों के लिए ही नहीं बल्कि इस धरती पर बसने वाली सभी जीव-जंतुओं के लिए प्राणदायी हैं। ऐसे में इनके संरक्षण को राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा मुद्दा बनाया जाना चाहिए। रिपोर्ट में दुनिया की इन प्रमुख नदियों पर मानवीय गतिविधियों और जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों की व्यापक समीक्षा की गई है।
गंगा, सिंधु, नील और यांत्सी नदियां प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के कारण संकट में हैं। यूरोप की डेन्यूब को नौवहन से नुकसान पहुंच रहा हैं। रियो ग्रांडे अति दोहन से संकट में है जबकि लॉ प्लाटा और साल्वीन बांधों के निर्माण का शिकार बन रही हैं। गंगा नदी को भारतीय संदर्भो में पवित्रता का सर्वोच्च मानक कहा गया है। इसलिए जहां पवित्रता की दरकार होती है, वहां इस पैमाने पर पवित्रता की स्थिति को आंका जाता है। लेकिन यदि पैमाना ही गंदा हो जाए तो ? जाहिर है, अब अफरा तफरी वैसी ही मचेगी, जैसी आज गंगा के हिमालयी उद्गम गंगोत्री और उसके आसपास के क्षेत्र में फैलती जा रही गंदगी को लेकर मच रही है। पिछले दिनों सेंट्रल इम्पॉवर्ड क्रॅमिटि ने गंगौत्री का दौरा कर जो तथ्य सामने रखे हैं, वे भयावह स्थिति को रेखांकित करते हैं। उच्चतम न्यायालय को पेश इस रिपोर्ट के अनुसार वह पूरा इलाका कचरे, गंदगी से घिरता जा रहा है। सैलानियों और तीर्थयात्रियों की भारी संख्या का अपना प्रभाव एवं दबाव भी गंगौत्री पर दिखाई देने लगा है। गंगौत्री से निकली गंगा को हरिद्वार से आगे बढ़ते ही कचरे, गंदगी को ढोने के लिए मजबूर कर दिया जाता है। बनारस, इलाहाबाद, कानपुर में गंगा पवित्रता के अपने ही पैमाने पर खुद विफल सिध्द हो जाती है। उसका उपयोग जल और आस्था से यादा कचरा और गंदगी को बहा देने में यादा किया जाने लगा है। पर्यावरण और पारिस्थितिकी के खिलाफ कायम इस प्रवृत्ति के वेग का अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि अरबों रुपए और हजारों कर्मचारियों को झोंक देने के बाद भी गंगा अभियान अपनी राह तक पर न चल सका। लक्ष्य की बात तो दूर की है।
गंगा नदी को प्रदूषण मुक्त बनाने की कार्य योजना गंगा एक्शन प्लान अरबों रुपए खर्च करने के बावजूद विफल साबित हुई है इस योजना के जरिए गंगा को 1990 तक पूरी तरह से प्रदूषण मुक्त और स्वच्छ कर दिया जाना था।
गंगा एक्शन प्लान प्रथम मार्च 1990 में पूरी की जानी थी उसे मार्च 2000 तक बढ़ाया गया। इसके बावजूद यह योजना पूरी नहीं हुई और अपना वांछित उद्देश्य प्राप्त नहीं कर सकी। गंगा नदी उत्तराखंड उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिमी बंगाल से बहते हुए देश की लगभग 40 प्रतिशत आबादी के जीवन का आधार बनती है। गंगा नदी इन रायों की अर्थव्यवस्था में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
जैसे समुद्र के किनारे तथा झीलों में उगने वाली वनस्पति शैवाल आदि जो कि प्रदूषण का कारण है, औद्योगिक कृषि, रिहायशी कॉलौनियों से निकलने वाले अपf’kष्ट पदार्थ से प्राप्त पोषण से पनपते हैं। भारी तत्व जैसे लैड और मरकरी का जियोकैमिकल चक्र में अपना स्थान है। इनकी खुदाई होती है और इनकी उत्पादन प्रक्रिया कैसी है उस पर निर्भर करेगा कि वे पर्यावरण में किस प्रकार सघनता से जाते हैं। जैसे इन तत्वों का पर्यावरण् में मानवीय निस्तारण प्रदूषण कहलाता है। वैसे ही प्रदूषण, देशज या ऐतिहासिक प्राकृतिक भूरासायनिक गतिविधि से भी पैदा हो सकता है।
वायुमण्डल में कार्बनडाईआक्साइड का होना भी प्रदूषण हो जाता है यदि वह धरती के पर्यावरण में अनुचित अन्तर पैदा करता है। ‘ग्रीन हाउस’ प्रभाव पैदा करने वाली गैसों में वृद्धि के कारण भू-मण्डल का तापमान निरन्तर बढ़ रहा है। जिससे हिमखण्डों के पिघलने की दर में वृद्धि होगी तथा समुद्री जलस्तर बढ़ने से तटवर्ती क्षेत्र, जलमग्न हो जायेंगे। हालाँकि इन शोधों को पश्चिमी देश विशेषकर अमेरिका स्वीकार नहीं कर रहा है। प्रदूषण् के मायने अलग-अलग सन्दर्भों से निर्धारित होते हैं।
परम्परागत रूप से प्रदूषण में वायु, जल, रेडियोधर्मिता आदि आते हैं। यदि इनका वैश्विक स्तर पर विश्लेषण किया जाये तो इसमें ध्वनि, प्रकाश आदि के प्रदूषण भी सम्मिलित हो जाते हैं।
गम्भीर प्रदूषण उत्पन्न करने वाले मुख्य स्रोत हैं, रासायनिक उद्योग, तेल रिफायनरीज़, आणविक अपशिष्ट स्थल, कूड़ा घर, प्लास्टिक उद्योग, कार उद्योग, पशुगृह, दाहगृह आदि। आणविक संस्थान, तेल टैंक, दुर्घटना होने पर बहुत गम्भीर प्रदूषण पैदा करते हैं। कुछ प्रमुख प्रदूषक क्लोरीनेटेड, हाइड्रोकार्बन्स, भारी तत्व लैड, कैडमियम, क्रोमियम, जिंक, आर्सेनिक, बैनजीन आदि भी प्रमुख प्रदूषक तत्व हैं।
प्राकृतिक आपदाओं के पश्चात् प्रदूषण उत्पन्न हो जाता है। बड़े-बड़े समुद्री तूफानों के पश्चात् जब लहरें वापिस लौटती हैं तो कचरे कूड़े, टूटी नाव-कारें, समुद्र तट सहित तेल कारखानों के अपशिष्ट म्यूनिसपैल्टी का कचरा आदि बहाकर ले जाती हैं। ‘सुनामी’ के पश्चात् के अध्ययन ने बताया कि तटवर्ती मछलियों में, भारी तत्वों का प्रतिषत बहुत बढ़ गया था।
औद्योगिक क्रांति के बाद से अब तक धरती का औसत तापमान काफी बढ़ चुका है। यह नि:संदेह ग्रीनहाउस गैसों की वृद्धि के कारण हुआ है। इनमें कटौती न की गयी तो धरती के औसत तापमान में आने वाले समय में बड़ी भारी बढ़ोतरी की आशंका है। यदि यह सच हुआ तो फ्रेंच पोलिनेशिया से लेकर मालदीव तथा श्रीलंका-मॉरीशस जैसे देशों के लिए खतरा और बढ़ जाएगा। इन देशों के बड़े हिस्से समुद्र के नीचे चले जाने से वहां की आबादी का विस्थापन कहीं न कहीं तो होगा ही और उसका पुनर्वास भी करना पड़ेगा। इस मायने में जलवायु परिवर्तन ठीक करना वैश्विक जिम्मेदारी है। और हम इसे नहीं निभा रहे हैं। जंगल साफ हो रहे हैं। पेट्रोलियम जैसे ईंधनों का उपयोग बढ़ रहा है तो दूसरी तरफ फैक्टरियां काला धुआं उगल रही हैं। वातावरण में लगातार कार्बन डाइऑक्साइड बढ़ रहा है। इन ग्रीनहाउस गैसों की बढ़ोतरी के लिए स्पष्ट रूप से धनी और औद्योगिक देश जिम्मेदार हैं। उन्हें आज दुनिया के तमाम वंचित समाजों का कर्ज चुकाना है। धरती की पारिस्थितिकी को नुकसान पहुंचाकर जितना पर्यावरण चंद देशों ने बिगाड़ा है, उसका पैसे में हिसाब लगाया जाए तो उस पैसे से पूरी धरती याने दुनियाभर के वंचित समाजों की गरीबी दूर की जा सकती है। और ऐसा हो जाए, तब वास्तव में धरती को बचाने की कोशिशें ईमानदारी से फलीभूत हो सकती हैं।
यूएनडीपी की वर्ष 2007-08 की मानव विकास रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन की ओर विशेष ध्यान दिलाया गया है। इसमें कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण खासतौर पर विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के सामाजिक उत्थान में गतिरोध पैदा होंगे। भारत के संदर्भ में यह टिप्पणी विशेष महत्व रखती है क्योंकि भारत जैसे विकासशील देश में गरीबी, अशिक्षा, ढांचागत अर्थव्यवस्था, स्वास्थ्य चिकित्सा की बदतर हालत इत्यादि को ठीक करने के लिए धन की जरूरत बढ़ती ही रहेगी। और यदि जलवायु परिवर्तन की मार पड़ती रहेगी तो स्थिति और भयावह हो जाएगी। इन मानकों पर भारत आज भी 177 देशों में से 128वें पायदान पर है, अर्थात बहुत नीचे। अर्थव्यवस्था की मोटाई देखें तो काफी है पर वस्तुस्थिति बहुत खराब है। यूएनडीपी की इस रिपोर्ट में विश्वविख्यात अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने ठीक ही लिखा है कि सही विकास मानव को सही मायने में स्वतंत्रता प्रदान करता है और उसकी चंगाई भी सुनिश्चित करता है। साथ ही विकास की प्रक्रिया पर्यावरणीय और पारिस्थितिक सरोकारों से अभिन्न भी है। मानव विकास की सही परिभाषा तभी फलीभूत होगी यदि साफ हवा-पानी, रोगमुक्त वातावरण और तमाम जीव-जंतुओं का संरक्षण सुनिश्चित हो सके। नीतियों में माकूल बदलाव से ही आम भारतीय का जीवन ठीक किया जा सकता है।
धरती का तापमान बढ़ने से जहां जलवायु परिवर्तन आम आदमी से लेकर वैज्ञानिकों को साफ दिखने लगा है, वहीं यह सच भी अधिक मुखरता से सामने आने लगा है कि जलवायु परिवर्तन अर्थात पर्यावरण के लिए बढ़े खतरे का सीधा संबंध गरीबी से है। गरीबी से अर्थात् वंचित समाजों के हाशिये पर चले जाने से। दूसरे शब्दों में कहें तो यदि गरीबी मिटेगी और हाशिये पर पड़े वंचित समाजों की भलाई के बारे में ठोस प्रकार से सोचना शुरू होगा तो पर्यावरण की स्थिति सुधरने की संभावना बढ़ेगी। पर्यावरण और पारिस्थितिकी ठीक होंगे तो जलवायु परिवर्तन का दुष्चक्र धीमा पड़ेगा और स्थितियां सुधरेंगी। हां, हो सकता है कि स्थिति जितनी बिगड़ चुकी है उसे ठीक करने में लंबा समय लग जाए। जिस तर्क के साथ यह बात रखी जा रही है वह नयी नहीं है। नॉर्वे में 1972 में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण सम्मेलन में यह बात स्पष्ट हो चुकी थी और इस सम्मेलन के घोषणापत्र में माना गया था कि पर्यावरण संतुलन बिगड़ने के खतरे का सवाल दुनिया में बढ़ती गरीबी के साथ सीधा जुड़ा हुआ है। अर्थात् जब तक गरीबी खत्म नहीं होगी, पर्यावरण की सुरक्षा कर पाना भी कठिन होगा। यह बात आज साफ दिखायी दे रही है। भारत इसका उदारहण है जहां गरीब, आदिवासी, दुर्गम क्षेत्रों में रहने वाले लोगों और दलितों जैसे वंचित समाज आज भी हाशिये पर हैं और इन्हीं को पर्यावरण खराब करने के लिए जिम्मेदार माना जा रहा है।
जलवायु परिवर्तन आज बड़ा मुद्दा है। सरकारों से लेकर तमाम तरह के संगठन और एजेंसियां इस विषय को लेकर चिंतित हैं क्योंकि हवा, पानी, पिघलते ग्लेशियर, सागरों का बढ़ता जलस्तर, आबोहवा में बदलाव, बारिश के मौसम में सूखा और बेमौसमी बरसात इत्यादि सब देख रहे हैं। फरवरी 2007 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा डॉ। आरके पचौरी की अध्यक्षता में गठित आईपीसीसी की रिपोर्ट में विस्तार से यह मुद्दा आ चुका है। जलवायु परिवर्तन के कारण पानी का संकट बढ़ा है, खाद्य सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है और गरीबी बढ़ी है। भारत के विभिन्न हिस्सों में किसानों की आत्महत्याओं के पीछे सूदखोरों के जुल्म के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन भी कारण है। यह दुर्भाग्य ही है कि कॉर्बन सिंक के नाम पर भी गरीबी से जूझ रहे देशों को ही निशाना बनाया जा रहा है। धनी देशों के लोगों की उपभोग की विकृत प्रवृत्तिायों के पोषण के लिए दुनिया के वंचित समाजों को मूलभूत आवश्यकताओं से आज भी वंचित रखा जा रहा है। पहले से ही पश्चिमी मुल्कों की ज्यादातियों को ढो रहे विकासशील देशों पर यह नया अत्याचार है। उनकी गरीबी का नाजायज फायदा उठाने की तरकीब के तौर पर कॉर्बन सिंक की राजनीति चलायी जा रही है।
हमें टिकाऊ और सतत जीवन प्रक्रिया के लिए उपभोग के तौर-तरीके बदलने पर भी चिंतन करना होगा। एक तरफ कुपोषण और दूसरी तरफ अत्यधिक उपभोग से पैदा संकट सामने हैं। इन चुनौतियों से साझेदारी से ही निपटा जा सकता है। जलवायु परिवर्तन पर चल रहे शोधों और अध्ययनों की मानें तो वर्ष 2050 तक जलवायु में इतना परिवर्तन आ जाएगा कि यूरोप में स्प्रिंग फरवरी में ही शुरू हो जाया करेगा। यह बात तो आने वाले समय की है पर यह उत्ताराखंड में पहले ही देखने में आ रहा है। अभी पिछले सीजन में बुरांश के फूल ऐसे समय में खिले देखे जब उन्हें नहीं होना चाहिए था और जब होना चाहिए था तब पेड़ों से फूल झड़ चुके थे। मोनाश विश्वविद्यालय आस्ट्रेलिया के मैल्कम क्लॉर्क और यूनिवर्सिटी ऑव एडिनबर रॉय थाम्पसन के एक अध्ययन के अनुसार भी ‘बॉटेनिकल कैलेंडर’ काफी बदल चुका है। उनके अनुसार ऐसे परिवर्तन से वनस्पतियों, पेड़-पौधों, चिड़ियों सहित अन्य जीव-जंतुओं के अस्तित्व के लिए खतरे बढ़ गये हैं। फूल जब खिलते हैं तो पक्षी और मधुमक्खी जैसे कीट-पतंग पॉलिनेशन की प्रक्रिया में अपनी भूमिका निभाते हैं पर यह समय से न हो तो फूलों के फल में बदलने की प्रक्रिया बाधित हो जाती है। इससे पूरा पारिस्थितिक तंत्र प्रभावित होता है।
आज विश्व की आबादी का छठा हिस्सा पानी की समस्या से जूझ रहा है। वर्ष 2025 आते-आते दुनिया की आधी आबादी पानी के लिए जूझ रही होगी। यह खतरा इतना बड़ा है कि पर्यावरणीय समस्याओं से आगे बढ़कर सुरक्षा और विकास को चुनौती देने वाला बन गया है। इसमें कोई शक नहीं दिखायी देता कि अगला विश्व युद्ध जलस्रोतों पर अधिकार जमाने के लिए हो। आज जो पेट्रोलियम के लिए हो रहा है वह अगले दशकों में पानी के लिए होगा। लिहाजा, प्रत्यके राष्ट्र को अपने हिसाब से इन समस्याओं से जूझने के उपाय खोजने होंगे।

विवेक मनचन्दा,लखनऊ

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