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आडवाणी ने एक झटके में सब गंवा दिया

मेरे विचार
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लोकसभा चुनाव करीब आ रहे हैं और भाजपा उस कुर्सी तक पहुंचने के ख्वाब देख रही है, जिसकी राह में विरोधी दलों के साथ-साथ उसकी अपनी अंदरूनी कलह भी खड़ी है। गोवा में चुनावी अभियान की कमान नरेंद्र मोदी को सौंपने के बाद भाजपा की उम्मीदों का किला 24 घंटे में ही हिल गया। अपनी अनदेखी से नाराज वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने पार्टी पर आदर्शो से भटकाव और नेताओं के व्यक्तिगत एजेंडा को तरजीह देने का आरोप लगाते हुए तीन अहम पदों से इस्तीफा दे दिया।अपने पत्र में उन्होंने लिखा था, ‘मुझे नहीं लगता भाजपा वही आदर्शवादी पार्टी है जिसे डा. मुखर्जी, दीनदयालजी, नानाजी और वाजपेयी ने खड़ा किया था और जिसकी मुख्य सोच देश और उसके लोगों के लिए थी। अब हमारे ज्यादातर नेता निजी स्वार्थ को साधने में लगे हैं।’ हालांकि संसदीय बोर्ड ने उनका इस्तीफा खारिज कर दिया है।गोवा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में एलान के बाद दिल्ली पहुंचते ही पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह को अडवाणी के इस्तीफे के संकट से जूझना पड़ा। आडवाणी को मनाने की कोशिशें चल रहीं हैं। हालांकि यह भी संकेत दे दिया गया है कि पार्टी दबाव में कोई फैसला नहीं करेगी। सियासी ‌गलियारों और मीडिया में इस घटनाक्रम को आडवाणी बनाम मोदी के रूप में पेश किया जा रहा है। लेकिन यह आधा सच है। आडवाणी की सीधी लड़ाई आरएसएस और पार्टी की उन नीतियों से है, जिनके कारण वह लगातार हाशिए पर जा रहे थे।
2009 लोकसभा चुनावों में लालकृष्‍ण आडवाणी भाजपा के ‘पीएम इन वेटिंग’ थे, लेकिन पार्टी को उनके नेतृत्व में हार का सामना करना पडा़।
2014 में वे एक बार फिर पीएम इन वेटिंग बनने की इच्छा रखते हैं, लेकिन इस बार नरेंद्र मोदी उनकी राह में रोड़ा बन गए हैं। आडवाणी इससे नाराज हैं और अपने इस्तीफे के रूप में एक नया दांव खेला है। इस बात से सभी वाकिफ हैं कि भाजपा के वयोवृद्ध नेता लालकृष्‍ण आडवाणी की प्रधानमंत्री बनने की चाहत किस हद तक है। नरेंद्र मोदी को पार्टी में तरजीह मिलते ही उन्होंने ब्रह्मास्‍त्र चल दिया। पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा दिया, तो छोटे से लेकर बड़े तक, सभी नेता रूठे आडवाणी को मनाने में जुट गए। विवादों से दूरी बनाए रखना न तो आडवाणी की ‌राजनीति रही है और न ही स्वभाव। रथयात्रा हो या जिन्ना की तारीफ, वह बवालों के बीच फंसते रहे हैं।
नरेंद्र मोदी के खिलाफ इस्तीफे को ब्रह्मास्त्र बनाने वाले भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी को पार्टी नेताओं की सहानुभूति तो मिल रही है, मगर खुलकर समर्थन नहीं।पार्टी में दूसरी बार अलग-थलग पड़े आडवाणी के दांव ने समर्थकों को भी असमंजस में डाल दिया है। हालांकि उन्हें मनाने की जोर-शोर से कोशिश जरूर हो रही है, मगर आडवाणी खेमे का एक भी नेता खुलकर उनका साथ देने से कतरा रहा है।होना तो यह चाहिए था कि गोवा कार्यकारिणी के बाद पार्टी अपना अगला राजनीतिक कार्यक्रम आगे बढ़ाती और खुद को यूपीए तथा कांग्रेस के विकल्प के तौर पर पेश करती।
मगर वह अपने आप में ही उलझती जा रही है। वास्तव में आडवाणी ने पार्टी के तीन शीर्ष फोरम से इस्तीफा देकर न केवल भाजपा, बल्कि राजग को भी संकट में डाल दिया है।उन्होंने भले ही पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह को भेजे पत्र में पार्टी के मौजूदा तौर-तरीके से तालमेल नहीं बिठा पाने की बात की है और बिना नाम लिए ही पार्टी के नेताओं पर अपना निजी एजेंडा आगे करने का आरोप जड़ा है।
जबकि यह सब जानते हैं कि उनका निशाना किस ओर है। वास्तव में यह उनका दोहरा मापदंड ही है, क्योंकि उनकी नाराजगी की असली वजह कहीं न कहीं उनकी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा से भी जुड़ी हुई है।फिर वह क्यों भूल रहे हैं कि पार्टी ने पिछला चुनाव तो उन्हीं के नेतृत्व में लड़ा था? मगर वह कोई करिश्मा दिखा नहीं पाए, जबकि वाजपेयी के अस्वस्थ होने के बाद तो वही पार्टी के शीर्षस्थ नेता रह गए थे।
वह यदि आज भी अपनी भूमिका की तलाश कर रहे हैं, तो निश्चय ही यह उनकी जिजीविषा है, मगर वह स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं कि पार्टी में उनकी जरूरत अब एक मार्गदर्शक के रूप में रह गई है।
असल में उन्हें मोदी से भी तब तक कोई परेशानी नहीं थी, जब तक कि वह गुजरात तक सीमित थे। दिलचस्प यह है कि आज आडवाणी में धर्मनिरपेक्ष छवि देख रहे लोग यह भूल जाते हैं कि यह आडवाणी ही थे, जिन्होंने भाजपा को अयोध्या आंदोलन के जरिये सत्ता की दहलीज तक पहुंचाया था।
किसी की समझ में नहीं आ रहा कि भाजपा की राजनीति में कभी मोदी के सबसे बड़े पैरोकार रहे आडवाणी ने उन्हीं मोदी की ताजपोशी के विरोध में इस्तीफे का अंतिम हथियार क्यों इस्तेमाल कर लिया।
इस जंग में भले ही मोदी जीतें या आडवाणी, मगर पार्टी नेताओं की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की लड़ाई में भाजपा तो अभी से हार गई है।सवाल है कि आखिर आडवाणी और मोदी के मधुर रिश्ते में दरार इस हद तक कैसे बढ़ गई? अब आडवाणी को मोदी फूटी आंखों क्यों नहीं सुहाते? आडवाणी के करीबियों की मानें तो रिश्ते को बिगाड़ने की शुरुआत मोदी की ओर से हुई।एक तरफ आडवाणी, मोदी को गुजरात में मजबूत करने की मुहिम में ईमानदारी से जुटे रहे। मगर मोदी अपना कद मजबूत होने के बाद आडवाणी से लगातार किनारा करते गए।
जिन्ना विवाद प्रकरण में भी जब संघ और उसके प्रति समर्पित भाजपा नेताओं ने आडवाणी पर पहली बार खुला हमला बोला तब भी मोदी उनके बचाव में नहीं आए। जबकि उस वक्त तो मोदी संघ की आंखों के नूर बन चुके थे।जून 2005 में कराची स्थित जिन्ना की मजार पर पुस्तिका में अपनी बात लिखने के बाद जब तक होटल पहुंचते तब तक दिल्ली से लेकर नागपुर तक उन पर भाजपा और संघ के तीरों की बौछार शुरू हो गई थी।
आडवाणी के इस्तीफे ने पार्टी को दोराहे पर ला खड़ा किया है। मोदी को भाजपा का नया चेहरा बना अटल-आडवाणी युग से बाहर आ चुकी पार्टी अब अपने फैसले से पीछे नहीं हट सकती।
मोदी को पीछे करने का फैसला पूरी पार्टी की फजीहत का कारण बनेगा तो आडवाणी पीछे हट कर अपनी फजीहत कराएंगे।विवाद से निकलने का एक रास्ता मोदी का आडवाणी के समक्ष आत्मसमर्पण है। मगर जो मोदी की राजनीति और स्वभाव जानते हैं, उन्हें पता है कि इसकी संभावना बेहद कम है।
भाजपा भले ही अपने रूठे ‘पितामह’ को मनाने में जुटी हो, लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अब लालकृष्ण आडवाणी से मुक्ति चाहता है।संघ का मानना है कि यदि आडवाणी नहीं मानते हैं तो उन्हें उनके हाल पर छोड़कर भाजपा को अब आगे बढ़ लेना चाहिए।
संघ ने साफ कह दिया है कि आडवाणी के इस कदम से भाजपा को जो नुकसान होना था, वह हो चुका। अब उसकी भरपाई नहीं हो सकती है। ऐसे में पार्टी को अब उन्हें मनाने के लिए ज्यादा मशक्कत नहीं करनी चाहिए।
संघ ने पिछले दिनों कह दिया था कि आडवाणी से लेकर डॉ. मुरली मनोहर जोशी समेत उन सभी बुजुर्ग नेताओं को चुनावी राजनीति से हट जाना चाहिए जिनकी उम्र 70 साल पूरी हो चुकी है।इस पर आडवाणी ने संघ से कहा था कि वे अभी स्वस्थ हैं और उनके राजनीति में रहने के लिए उम्र को बाधा नहीं बनाया जाना चाहिए। संघ चाहता है कि आडवाणी जैसे वरिष्ठ नेताओं को अब संरक्षक की भूमिका में आ जाना चाहिए।दरअसल, संघ और आडवाणी के बीच लंबे समय से सांप-सीढ़ी का खेल चल रहा है। नितिन गडकरी की दोबारा ताजपोशी को रुकवाने में आडवाणी की भूमिका को संघ नहीं भूला है।गडकरी ऐसे पहले भाजपा अध्यक्ष थे जो सीधे दस जनपथ यानी सोनिया गांधी पर हमला करते रहे हैं, संघ भी यही चाहता रहा है। जबकि भाजपा के बाकी नेता ऐसा करने से कतराते रहे हैं।इससे पहले जिन्ना प्रकरण से नाराज संघ का मानना है कि राममंदिर के पुरोधा आडवाणी वैचारिक तौर पर भी पलट गए। राममंदिर मामले में भी वे पहले जैसे नहीं रहे।यही वजह है कि विश्व हिंदू परिषद प्रमुख अशोक सिंघल और आडवाणी के बीच दोबारा मधुर संबंध नहीं बन पाए हैं।
कल तक बीजेपी में बवंडर थमने का नाम नहीं ले रहा था।
भाजपा में नरेंद्र मोदी का रुतबा बढ़ने से दुखी जेडी (यू) को भी लालकृष्ण आडवाणी के इस्तीफे के बहाने सहयोगी पार्टी पर निशाना साधने का मौका मिल गया है। जेडी (यू) ने साफ-साफ कहा है कि अब एनडीए में रहना मुश्किल है और रिश्तों पर पुनर्विचार की दरकार है। पार्टी के राज्यसभा सांसद केसी त्यागी ने गठबंधन छोड़ने के संकेत देते हुए कहा कि जल्द ही पार्टी की बैठक होगी और एनडीए को लेकर फैसला हो जाएगा। इससे पहले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी कह चुके हैं कि गठबंधन के मसले पर जेडी(यू) की बैठक अतिशीघ्र होगी और पार्टी में चर्चा के बाद ही वह कोई प्रतिक्रिया देंगे।।
भाजपा के अंदर नरेंद्र मोदी पर मची कलह के बीच भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी के पार्टी के सभी पदों से इस्तीफे पर विरोधी भी खूब मजे ले रहे हैं। कांग्रेस के नेताओं ने जहां आडवाणी के इस्तीफे पर चुटकियां लीं, तो वहीं अब दिल्ली के वीवीआईपी माने जाने वाले लुटियंस जोन में रातोंरात आडवाणी के इस्तीफे की चिट्ठी को पोस्टर की शक्ल में चिपका दिया गया है। ये पोस्टर पूरे लुटियंस जोन में लगाए गए हैं। इस इलाके में मंत्रियों और सांसदों के बंगले हैं। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के घर के पास भी एक पोस्टर लगाया गया है।पोस्टरों में सबसे ऊपर लिखा गया है ‘देखिए भाजपा का पर्दाफाश’। पोस्टरों में इसके बाद आडवाणी की चिट्ठी की वे ही लाइनें छापी गई हैं जिसमें उन्होंने भाजपा के नेताओं पर निजी हितों के लिए काम करने का आरोप लगाया है।
भाजपा की आडवाणी कथा में एक नया अध्याय सामने आ रहा है। सूत्रों के मुताबिक इस्तीफे से पहले उन्होंने पार्टी के सामने शर्त रखी थी कि एनडीए के सत्ता में आने की स्थिति में कम से कम उन्हें छह महीन पीएम बनने का मौका दिया जाए। पार्टी के इन्कार के बाद अगले ही दिन नाटकीय घटनाक्रम के बाद उन्होंने इस्तीफा दे दिया।
अच्छा होता कि आडवाणी अपनी प्रधानमंत्री पद की चाहत में पार्टी का मटियामेट न करें और एक मार्गदर्शक की तरह भाजपा को कांग्रेस का मजबूत विकल्प बनाने में सहयोग करें।इस पूरे प्रकरण में भाजपा की जबर्दस्त किरकरी हो चुकी है।आडवाणी ने एक झटके में सब गंवा दिया। अब हाल ऐसा है कि पार्टी दिखा तो रही है कि आडवाणी के कदम से वह परेशान है और अपने नेता को मनाने की कोशिश कर रही है, लेकिन असल में ऐसे साफ संकेत हैं कि पार्टी के लोग अब राहत महसूस कर रहे हैं कि आडवाणी को सही संदेश चला गया। भाजपा को भी चाहिए की आडवाणी की जिद के आगे न झुक कर कोई ऐसा कदम न उठाये जिससे जनता में गलत सन्देश जाये ।आज के समय में अगर भाजपा को वोट मिल सकता है तो वह सिर्फ मोदी के नाम पर।अतः भाजपा को किसी भी कीमत पर मोदी को ही प्रधानमंत्री पद के लिए पेश करके अपनी तैयारी करनी होगी तभी उसका भला होगा।

विवेक मनचन्दा,लखनऊ

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