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गरीबों के साथ भद्दा मजाक करने से बाज आये योजना आयोग और सरकार

मेरे विचार
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गरीबी घटाने के लिए सरकार की आंकड़ों की बाजीगरी पर देश की सियासत एक बार फिर गरमा गई है।इस मामले में सरकार को विपक्ष ही नहीं, बल्कि सहयोगी दलों के भी हमले का सामना करना पड़ रहा है।विपक्ष ने जहां आंकड़ों की इस बाजीगरी को गरीबों के साथ भद्दा मजाक बताया है, वहीं सहयोगी दल एनसीपी ने गरीबी रेखा निर्धारित करने के योजना आयोग के पैमाने पर सवाल उठाया है।
गरीबी, कुपोषण और भुखमरी के मुद्दे पर भारत को हमेशा शर्मसार होना पड़ा है। ऐसे वक्त में अगर आप योजना आयोग के आंकड़ों पर भरोसा करते हैं तो आपको खुशी मिल सकती है। आयोग के मुताबिक, 2009-10 में देश में गरीबों की संख्या 40.7 करोड़ थी, जो नई गरीबी रेखा के बाद 2011-12 में घट कर 26.9 करोड़ रह गई है।
सरकार ने गरीबी की रेखा के दायरे में आने वालों की रोजाना की आय में शहरी गरीबों के लिए एक रुपया 30 पैसा बढ़ाकर प्रतिदिन 33 रुपये 30 पैसे कमाने वाले को गरीबी रेखा से ऊपर रखा है। इसके पहले यह सीमा 32 रुपये थी। इस नई परिभाषा के अनुसार महीने में पांच हजार रुपये कमाने वाला व्यक्ति गरीब नहीं कहलाएगा। सरकार द्वारा बनाए गए फार्मूले के तहत गांवों में पांच सदस्यों के परिवार की अगर मासिक आमदनी 4 हजार 80 रुपये है और शहरों में रहने वाले इसी तरह के परिवार की अगर आमदनी 5 हजार रुपये मासिक है, तो वह गरीब परिवार नहीं कहलाएगा।
इसके मायने यह होंगे कि प्रति माह पांच हजार पाने वाले लोग गरीबी रेखा के नीचे के लोगों को मिलने वाले लाभों से वंचित रह जाएंगे। सरकार यह मानती है जो व्यक्ति खुद पर प्रतिदिन 33 रुपये 30 पैसा खर्च करता है, वह ठीक है, उसकी बुनियादी जरूरतें पूरी हो रही है। सरकार से सहायता की जरूरत नहीं।
गरीबी की पुरानी परिभाषा ही गरीबों का मुंह चिढ़ा रही थी। इस नई परिभाषा ने यह भी मान लिया है कि पिछले एक साल में महंगाई बहुत कम बढ़ी है। गरीबी घटाने के लिए सरकार की आंकड़ों की बाजीगरी पर देश की सियासत एक बार फिर गरमा गई है।इस मामले में सरकार को विपक्ष ही नहीं, बल्कि सहयोगी दलों के भी हमले का सामना करना पड़ रहा है।विपक्ष ने जहां आंकड़ों की इस बाजीगरी को गरीबों के साथ भद्दा मजाक बताया है, वहीं सहयोगी दल एनसीपी ने गरीबी रेखा निर्धारित करने के योजना आयोग के पैमाने पर सवाल उठाया है।
भाजपा ने तो इस आंकड़े का मजाक उड़ाते हुए कांग्रेस और सरकार को प्रतिदिन 27 रुपये में गुजारा करने की चुनौती दे डाली।हालांकि कांग्रेस ने योजना आयोग का बचाव करते हुए कहा है कि आंकड़े बताते हैं कि यूपीए सरकार के कार्यकाल में लोगों के जीवन स्तर में उल्लेखनीय सुधार हुआ है।
योजना आयोग के आंकड़ों के आधार पर गरीबी का पैमाना तय करने को गरीबों का मजाक उड़ाने पर राजनीति शुरू हो गई है। बीजेपी में योजना आयोग के इस आंकड़े को जहां हास्यास्पद करार दिया है वहीं कांग्रेसी नेता राज बब्बर ने बीजेपी पर पलटवार करते हुए कहा है कि आज भी मुंबई में पूरा भोजन 12 रुपये में करना संभव है। बब्बर ने कहा, मैं आज भी मुंबई में 12 रुपए में पूरा भोजन पा सकता हूं।
केंद्र सरकार ने रोजाना कमाई में महज एक रुपये बढ़ाकर एक झटके में 17 करोड़ लोगों की गरीबी दूर करने का सेहरा अपने माथे बांध तो लिया है, लेकिन पिछले दो वर्षो में महंगाई की स्थिति को देखते हुए ये आंकड़े आम जनता के साथ क्रूर मजाक सरीखे लगते हैं। सितंबर, 2011 में सरकार ने जब गांव में 26 रुपये रोजाना से ज्यादा कमाई वालों को गरीब मानने के सिद्धांत को खारिज किया था, तब से आज तक रसोई के जरूरी सामानों की कीमतें 10 से लेकर 40 फीसद तक बढ़ चुकी हैं।
सितंबर, 2011 में सरकार ने जब 26 रुपये के आंकड़ों को खारिज किया था तब भी यही तर्क दिया गया था। विपक्षी दलों ने सरकार पर आरोप लगाए थे कि उसके सदस्य 26 रुपये में जीवन यापन कर दिखाएं। आंकड़ों की ताजा बाजीगरी ने विपक्षी दलों को सरकार पर हमला करने का एक और मौका दे दिया है। वर्ष 2011 में विपक्षी दलों की तरफ से जोरदार आलोचना के बाद ही सरकार ने इसे वापस ले लिया था। तब सरकार में योजना मंत्री अश्विनी कुमार ने 26 रुपये रोजाना कमाई के आंकड़े को खारिज किया था और कहा था कि इस राशि में इज्जत से जीवन यापन नहीं हो सकता।
योजना आयोग ‘कहता’ है कि रोजाना 28 रुपये से ज्यादा खर्च करने वाला गरीब नहीं है। अब इस योजना आयोग के अधिकारी खुद ‘करते’ क्या हैं आप यह जानेंगे तो हैरत में पड़ जाएंगे और बेचारे उन गरीबों की किस्मत को भी कोसेंगे। गरीबी की ‘अनूठी’ परिभाषा तय करने वाले योजना आयोग की फिजूलखर्ची का नमूना यह है कि उसने अपने दो टॉइलेटों की मरम्मत पर ही 35 लाख रुपये फूंक डाले। सूचना अधिकार कानून (RTI) के तहत दाखिल एक अर्जी के जवाब से यह आंकड़ा सामने आया है। हालांकि योजना आयोग के अध्यक्ष मोंटेक सिंह इस बारे में अब सफाई दे रहे हैं कि यह रकम सिर्फ दो टॉइलेटों पर खर्च नहीं की गई और यह भी कि यह खर्च सचमुच जरूरी था।
इस पर योजना आयोग के अध्यक्ष मोंटेक सिंह ने कहा था कि यह रकम सिर्फ दो टॉइलेटों पर खर्च नहीं की गई, बल्कि कई टॉइलेटों की मरम्मत के काम में इस्तेमाल की गई है। उन्होंने कहा कि दो ब्लॉकों की मरम्मत की गई जिनमें कई टॉइलेट हैं। इनमें एक साथ दस लोग टॉइलेट जा सकते हैं। उन्होंने कहा, आयोग में वीआईपी लोगों का आना-जाना लगा रहता है, इसलिए मरम्मत का काम जरूरी था।
योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया की पिछले दिनों भी गरीबी की अपनी ‘अनूठी’परिभाषा को लेकर खूब फजीहत हुई थी। इसमें 28 रुपये से ज्यादा खर्च करने वाले को गरीब नहीं माना गया है। RTI से पता चला था कि अहलूवालिया ने मई-अक्टूबर 2011 के दौरान विदेश यात्राओं पर 2.02 लाख रुपये प्रतिदिन खर्च किए थे। गरीबी की परिभाषा के अलावा विदेश यात्रा खर्च को लेकर भी योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया आलोचनाओं के शिकार हो चुके हैं। एक आरटीआइ अर्जी से पता चला था कि अहलूवालिया ने मई-अक्टूबर 2011 के दौरान विदेश यात्राओं पर 2.02 लाख रुपये प्रतिदिन खर्च किए थे। एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक जून 2004 से जनवरी 2011 के बीच उनके 42 आधिकारिक दौरों पर 2.34 करोड़ रुपये व्यय हुए। हालांकि अहलूवालिया का इस पर कहना था कि शासकीय दायित्वों के निर्वहन के लिए विदेशी दौरे आवश्यक हैं।
जिस बेशर्मी से सरकार और योजना आयोग इस बढती महंगाई में भी गरीबों का मजाक उड़ाने से बाज नहीं आ रहे हैं ,इसका मुंहतोड़ जवाब यही गरीब जनता उन्हें अगले साल लोकसभा चुनावों में जरुर देगी ।
गरीबी का पैमाना और गरीबों की संख्या, दोनों इस आम धारणा की पुष्टि ही करते नज़र आते हैं कि सरकारी आंकड़े अकसर विश्वसनीय नहीं होते। जिस देश में आलू 25 रुपये, प्याज 40 रुपये और टमाटर 70 रुपये किलो बिक रहा हो, वहां गांव में 28 रुपये और शहर में 34 रुपये रोज खर्च करने वाले व्यक्ति को गरीब न मानना अपने आप में गरीबों के साथ सबसे क्रूर मजाक है। देश के योजना आयोग ने गरीबी का यह नया पैमाना तय करते हुए कहा है कि प्रतिदिन इतना खर्च करने वाले को गरीबी की रेखा से नीचे नहीं माना जायेगा यानी वे उन तमाम योजनाओं के अंतर्गत सुविधाओं के पात्र नहीं होंगे, जो सरकार ने गरीबी की रेखा से नीचे जीवनयापन करने वालों के लिए चला रखी हैं। बेशक जब सरकार ने कल्याणकारी योजनाओं की पात्रता के लिए गरीबी की रेखा का मापदंड रखा है तो उसका पैमाना भी होना ही चाहिए, लेकिन अगर वह अव्यावहारिक हो तो उससे कोई सकारात्मक लक्ष्य प्राप्त होने के बजाय विवाद ही पैदा होंगे।
सामान्य समझ रखनेवाला भी समझ सकता है कि जब पिछले पांच सालों से देश में महंगाई बेलगाम बनी हुई है, आर्थिक मंदी की मार रोजगारों पर भी पड़ रही है, तो गरीबों की संख्या बढ़ेगी ही, क्योंकि व्यक्ति की क्रयशक्ति घट रही है, लेकिन वातानुकूलित कमरों में बैठ कर गांव और गरीब के लिए योजना बनानेवालों ने जो चमत्कार कर दिखाया है, उस पर किसी भी समझदार और संवेदनशील व्यक्ति का सिर शर्म से झुक जायेगा। बढ़ती महंगाई के बीच भी जब आप गरीबी के पैमाने को व्यावहारिक नहीं बनायेंगे तो जाहिर है कि सरकारी आंकड़ों में तो गरीब कम ही हो जायेंगे, पर इससे जमीनी वास्तविकता तो नहीं बदल जायेगी। दरअसल योजना आयोग ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि उसका देश की ज़मीनी वास्तविकताओं से कोई सीधा संबंध-सरोकार नहीं है। पिछले साल योजना आयोग की इस अव्यावहारिक सोच पर केंद्र सरकार का नेतृत्व कर रही कांग्रेस के भी कुछ नेताओं ने सवाल उठाये थे, लेकिन इस बार तो कपिल सिब्बल सरीखे मंत्री भी योजना आयोग से सहमति जता रहे हैं। क्या यह आगामी लोकसभा चुनावों में गरीबी कम करने के श्रेय के नाम पर वोट बटोरने की मंशा का संकेत है? अतीत में सत्तारूढ़ दल झूठे आंकड़ों के सहारे मतदाताओं को फुसलाते रहे हैं, लेकिन इस झूठ का ठीकरा सिर्फ योजना आयोग के सिर नहीं फोड़ा जा सकता, क्योंकि उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया भले ही सर्वेसर्वा हों, पर योजना आयोग के अध्यक्ष तो खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह हैं।

विवेक मनचन्दा,लखनऊ

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