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देश में नेताओं और राजनीतिक पार्टियों पर कोई भी कानून लागू ही नहीं होता है ।

मेरे विचार
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इन दिनों हमारे माननीयों की आपसी समझ और एक जुटता देखते बन रही है।दागी नेताओं को बचाने तथा राजनीतिक पार्टियों को आरटीआई के दायरे से बाहर करने के लिए उनमें एकता की गांठ बंधी है। उनके स्वर एक हुए हैं। इसी वर्ष दस जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने जेल जाने अथवा सजा होने पर नेताओं के चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी है। चूंकि मामला अधिकतर दलों के बाहुबलियों से जुड़ा है, इसलिए उनमें बेचैनी है। इतना ही नहीं, राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाले चंदे के बारे में भी आम आदमी की ताक-झांक गंवारा नहीं है। वह पार्टियों को सूचना अधिकार कानून के दायरे में लाने को तैयार नहीं है। इसीलिए केंद्रीय सूचना आयोग के तीन जून को दिये फैसले को पलटने के लिए विधेयक लाने की तैयारी है। इन दोनों फैसलों को इसी मॉनसून सत्र में विधेयक लाकर रद्द करने की तैयारी है। सार्वजनिक मंचों से राजनीति के अपराधीकरण, चुनावों में काले धन के प्रवाह को रोकने तथा पारदर्शिता की बड़ी-बड़ी डींगें हांकने वाले ये दल अब उसी के ही खिलाफ पीठ कर खड़े हो गये हैं। इससे साफ है कि राजनीतिक दल भ्रष्टाचार और अपराधीकरण से खुद को मुक्त करने को तैयार नहीं हैं। इससे चुनाव सुधार की दिशा में शुरू हुई बड़ी पहल को बड़ा झटका लगने वाला है।
हर काम में पारदर्शिता का ढिंढोरा पीटने वाले राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार (आरटीआई) कानून के दायरे से बाहर रखने की सरकार ने पूरी तैयारी कर ली है। इस सिलसिले में आरटीआई संशोधन विधेयक भी लोकसभा में पेश कर दिया गया है । दिलचस्प यह है कि तमाम मुद्दों पर एक दूसरे के खिलाफ हंगामा करने वाली पार्टियां इस मुद्दे पर एकजुट हो गई हैं। पिछले दिनों केंद्रीय सूचना आयोग ने आदेश दिया था कि सभी राजनीतिक पार्टियां आरटीआई कानून के तहत आती हैं। इसका कांग्रेस, भाजपा, सीपीआई, एनसीपी, बसपा समेत कई अन्य दलों ने विरोध जताया था। इन दलों का कहना था कि सीआईसी अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर आकर निर्णय ले रहा है।
बहरहाल, सरकार और तमाम राजनीतिक पार्टियाँ इस कानून से परेशान है, लेकिन संकोच में कुछ कर नहीं पा रही है। ऐसे में वह इस परेशानी से निजात पाने के लिए बीच का रास्ता निकाल रही है। आरटीआई कानून में प्रस्तावित बदलाव के बाद राजनीतिक पार्टियां जनता को अपने दल से जुड़ी जानकारियां देने के लिए बाध्य नहीं होंगी।
देश में राजनीतिक अपराधीकरण रोकने की लगातार मांग हो रही है। विगत आम चुनाव में दागियों को टिकट न देने के लिए राजनीतिक दलों पर दबाव भी बना था। इसके बावजूद पार्टियों के टिकट पर चुनाव लड़ने वाले अधिकतर बाहुबलियों को हराकर जनता ने सबक दिया था। हद तो यह है कि वर्तमान सांसदों-विधायकों में से 30 प्रतिशत पर आपराधिक मामले चल रहे हैं। इसीलिए जेल से चुनाव लड़ने पर रोक तथा दो साल से ज्यादा सजा होने पर सदन की सदस्यता खत्म होने के सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले पर माननीयों का कोहराम चौंकाने वाला नहीं है। इस आदेश से दागियों की जगह संसद और विधानसभाओं के बजाय जेल होगी। राजनीति को धन कमाने की मशीन समझने वालों पर अंकुश लगेगा और राजनीति में साफ-सुथरे लोगों के आने का मार्ग खुलेगा। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता चौधरी वीरेंद्र सिंह का यह कहना कि राज्य सभा की एक सीट की कीमत सौ करोड़ तक जाती है तो संसद में भाजपा के उप नेता गोपीनाथ मुंडे का यह बयान कि उन्होंने चुनाव में आठ करोड़ रुपये खर्च किये थे । यह समझने के लिए काफी है कि चुनाव में काले धन का उपयोग किस हद तक हो रहा है। यह जारी रहे, इसीलिए कोर्ट के फैसले को पलटने की तैयारी है।
सरकार और तमाम राजनीतिक पार्टियाँ इस कानून से परेशान है, लेकिन संकोच में कुछ कर नहीं पा रही है। ऐसे में वह इस परेशानी से निजात पाने के लिए बीच का रास्ता निकाल रही है। आरटीआई कानून में प्रस्तावित बदलाव के बाद राजनीतिक पार्टियां जनता को अपने दल से जुड़ी जानकारियां देने के लिए बाध्य नहीं होंगी।
आरटीआई एक्ट में संशोधन, केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) के 3 जून को दिए उस आदेश को पलट देगा, जिसमें देश की छह प्रमुख राजनीतिक पार्टियों को इस पारदर्शी कानून की परिधि में लाए जाने की बात कही गई थी। आरटीआई से जुड़े मामलों को देखने वाले कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग ने हाल में कानून मंत्रालय की ओर से एक अध्यादेश प्राप्त किया है।
केंद्रीय सूचना आयोग (सीवीसी) ने 3 जून को छह राष्ट्रीय दलों से जुड़ी याचिका पर आदेश दिया था कि ये सरकार से किसी न किसी रूप में मदद लेते हैं, इसलिए आरटीआई के तहत आते हैं। वैसे तो यह आदेश राष्ट्रीय दलों (कांग्रेस, बीजेपी, एनसीपी, सीपीएम, सीपीआई और बीएसपी) के लिए था, लेकिन अन्य पार्टियां भी इसके दायरे में आ रही थीं।
इसी आदेश के असर से पार्टियों को बचाने के लिए सरकार की ओर से कार्मिक मंत्री वी. नारायणसामी ने आरटीआई (संशोधन) विधेयक पेश किया। इस बिल में एक नई व्याख्या जोड़ने का प्रस्ताव है, जो कहती है कि जनप्रतिनिधित्व कानून के तहत राजनीतिक दल के रूप में रजिस्टर्ड या मान्यता प्राप्त संगठन को पब्लिक अथॉरिटी नहीं माना जाएगा। विधेयक में स्पष्ट किया गया है कि राजनीतिक दलों का स्टेटस किसी भी अदालत या आयोग के आदेश या फैसले से प्रभावित नहीं होगा। ये प्रावधान 3 जून से लागू होंगे क्योंकि उसी दिन सीवीसी ने आदेश दिया था।
सजायाफ्ता और जेल में बंद नेताओं के चुनाव लड़ने पर रोक के सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के खिलाफ समाजवादी पार्टी बगावत करने का मूड बना चुकी है। इस फैसले के खिलाफ वह दूसरी पार्टियों को भी लामबंद करने की कोशिश करेगी।समाजवादी पार्टी के ताकतवर महासचिव रामगोपाल यादव ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को रद्द करने के लिए वह राजनीतिक पार्टियों से संविधान में संशोधन के लिए बात करेंगे, ताकि नेताओं को चुनाव लड़ने से कोई नहीं रोक सके।
आश्चर्य की बात तो यह है की मुख्य विपक्षी दल भाजपा जो अगली बार केंद्र में अपनी सरकार बनाने के सपने देख रही है वह भी पारदर्शिता को अपनाने को तैयार नहीं है । जबकि यही पार्टी खुद को औरों से अलग बता जनता से वोट मांगती रही है । कुल मिलाकर देखा जाए तो पार्टी चाहे कोई भी हो सत्ता में आने के लिए कुछ भी कर सकती हैं । संघ ने भी आरोप लगाया है कि सभी दल जनआकांक्षाओं के विपरीत चुनाव सुधारों को रौंदने के लिए एक हो गए हैं। संघ ने सवाल उठाया है कि आरटीआई कानून जिसे जनता के लिए वरदान । बताया जा रहा है, वह राजनीतिक दलों के लिए अभिशाप कैसे बन सकता है?
संघ के मुखपत्र पांचजन्य में इस मुद्दे पर सभी दलों की दिखाई गई एकजुटता पर करारा प्रहार किया गया है। संपादकीय में कहा गया है कि वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था में जनआकांक्षाओं और चुनाव सुधारों को रौंदने के लिए सभी दल एक हो गए हैं।पार्टीलाइन टूट गई है और सभी दलों का चेहरा एक हो गया है। आरटीआई के फंदे से निकलने के लिए संविधान संशोधन प्रस्ताव पर कैबिनेट की मुहर और सभी दलों के एकजुट होने की भी संघ ने तीखी आलोचना करते हुए कहा कि वर्तमान समय में भारतीय राजनीति सबसे बुरे दौर से गुजर रही है।
संघ ने पूछा कि क्या आरटीआई के दायरे में लाए जाने या सुप्रीम कोर्ट का अपराधियों की राजनीति में घुसपैठ रोकने के लिए दिया गया फैसला गलत था, या फिर दलों की नीयत में ही खोट आ गई है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत करते हुए संपादकीय में कहा गया है कि आखिर इस फैसले में गलत क्या था?
संघ ने कहा है कि महिला आरक्षण और समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दों पर बिखरने वालों दलों में इन फैसलों के खिलाफ आई एकजुटता बताती है कि सत्ता का रंगमंच धरातल पर खड़ी जनता के मुकाबले इतना ऊंचा हो गया है, जहां से जमीनी सच दिखाई नहीं देता।इस्से तो यही साबित होता है की नियम कायदे कानून सिर्फ गरीब और आम जनता के लिए ही होते हैं ।देश में नेताओं और राजनीतिक पार्टियों पर कोई भी कानून लागू ही नहीं होता है ।

विवेक मनचन्दा ,लखनऊ

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