Menu
blogid : 13858 postid : 596389

क्या हिंदी सम्मानजनक भाषा के रूप में मुख्य धारा में लाई जा सकती है? अगर हां, तो किस प्रकार? अगर नहीं, तो क्यों नहीं?

मेरे विचार
मेरे विचार
  • 153 Posts
  • 226 Comments

हर साल 14 सितम्बर को ‘हिन्दी दिवस’ को मनाए जाने की रस्म है और अंग्रेजी के इस युग में हिन्दी दिवस महज रस्म अदायगी बनकर रह गया है। अंग्रेजी इस कदर हावी है कि इससे अनजान लोगों को दूसरी नजरों से देखा जाता है। आजादी के 66 साल बीतने के बाद भी हिन्दी राष्ट्रभाषा का वह दर्जा हासिल करने में नाकाम रही है, जिसकी वकालत देश को चलाने वाले करते आए हैं।भारत में प्रतिवर्ष 14 सितम्बर का दिन ‘हिन्दी-दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। इस दिन विभिन्न शासकीय-अशासकीय कार्यालयों, शिक्षा संस्थाओं आदि में विविध गोष्ठियों, सम्मेलनों, प्रतियोगिताओं तथा अन्य कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। कहीं-कहीं ‘हिन्दी पखवाडा’ तथा ‘राष्ट्रभाषा सप्ताह’ इत्यादि भी मनाये जाते हैं। विश्व की एक प्राचीन, समृद्ध तथा महान भाषा होने के साथ ही हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा भी है। अतः इसके प्रति अपना प्रेम और सम्मान प्रकट करने के लिए ऐसे आयोजन स्वाभाविक ही हैं। बस कुछ ही दिनों के बाद फिर से सिसकती हुई हिंदी के सम्मान के नाम पर 14 सितम्बर को हिंदी दिवस ,हिंदी पखवाडा और न जाने तमाम हिंदी से सम्बन्धित कार्यक्रमों की एक बार फिर से रस्म अदायगी की जाएगी,और फिर से हिंदी को एक कोने में रखकर शान से अंग्रेजियत छाड़ेंगे।
परन्तु, दुःख का विषय यह है की समय के साथ-साथ ये आयोजन केवल औपचारिकता मात्र बनते जा रहे हैं।राष्ट्रगीत,राष्ट्रध्वज तथा राष्ट्रभाषा किसी भी राष्ट्र के मानबिंदु होते हैं। इनका रक्षण, पोषण तथा प्रसार करना प्रत्येक राष्ट्र का कर्तव्य है।अतः राष्ट्र भाषा होने के कारण हिन्दी का भी व्यापक प्रचार-प्रसार किया जाना आवश्यक है। परन्तु, ऐसा लगता है की भारत में कभी भी इस दृष्टि से विचार नहीं किया गया। स्वतंत्रता के बाद भी पश्चिमी शिक्षा-पद्धति को ही जारी रखने के कारण पश्चिम को ही श्रेष्ठ मानने की प्रवृत्ति उत्पन्न हो गई। इसी प्रकार अंग्रेज़ी का ज्ञान रखने वालों को ही विद्वान मानने की मानसिकता भी दिखाई देती है। इसका दुखद पहलू यह है कि केवल सामान्य जनता में ही नहीं, वरन, शासकों के मन में भी यही भावना विद्यमान है।इसका एक उदहारण यह है कि अपने पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटलबिहारी वाजपेयी ने जब सांसद के रूप में अपना प्रथम भाषण हिन्दी में प्रारम्भ किया, तो इसका विरोध करते हुए अनेक संसद-सदस्य उठकर सदन से बाहर चले गए। आज भी संसद में होने वाली बहस तथा चर्चाओं में बड़े पैमाने पर अंग्रेज़ी का ही प्रयोग होता हुआ दिखाई देता है।
राष्ट्रभाषा एक देश की संस्कृति का अभिन्न हिस्सा होती है, जिसे सम्पूर्ण राष्ट्र में भाषा कार्यों में (जैसे लिखना, पढना और वार्तालाप) के लिए प्रमुखता से प्रयोग में लाया जाता है। भारत की सभी भाषाएँ राष्ट्रभाषा है।हर साल चिर परिचित परम्परागत रूप में हिंदी दिवस मनाकर सेमिनार,संगोष्ठियाँ ,वक्तव्य ,भाषण प्रतियोगिताओं का आयोजन करते हुए,परस्पर हिंदी दिवस की बधाई देते हुए।प्रतिवर्ष यही क्रम दोहराया जाता है और दोहराया जाएगा, इसी रूप में इससे अधिक कुछ और नया करने की स्थिति में हम हैं नहीं क्योंकि हमारी इच्छाशक्ति नहीं।अंग्रेजी की दासता हमारे मनोमस्तिष्क पर इस प्रकार अधिनायक के रूप में आसीन है कि अंग्रेजी भाषा में लिखने ,बोलने में गर्व का अनुभव करते हैं ।हम बात कर रहे हैं हिंदी की, कुछ ही क्षण बाद अपने बच्चों को सिखायेंगें ग्रेंड पा ,मौम, डैड, राईस, मून मामा,ब्रो, सिस …ऐसे में कैसे आशा कर सकते हैं कि हमारी भाषा हिंदी अपना सम्मान प्राप्त करेगी।
विश्व को जीरो देने वाले भारत में हिंदी की गिनती कहीं भूले भटके ही दिखती है।न्यायालयों से अधिक हिंदी का अपमान संभवतः ही कहीं हुआ हो।अनुच्छेद 348 के अनुसार उच्च न्यायालयों व उच्चतम न्यायालय के लिए तो केवल अंग्रेजी को ही अधिकृत किया गया है।देश की बागडोर सम्भालने वाले हमारे नेता पूर्णतया अंग्रेजों से भी बढ़कर अंग्रेज थे उनका पारिवारिक वातावरण शिक्षा-दीक्षा ,मित्रमंडली सभी कुछ तो अंग्रेजी था।कहा जाता है,की भारतीय संस्कृति के पुरोधा हमारे प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद जी ने हमारे प्रथम प्रधान मंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु को सुझाव दिया की विदेशी प्रतिनिधियों से वार्ता का माध्यम हिंदी होना चाहिए और इसके लिए अनुवादक की सहायता ली जा सकती है ,परन्तु उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई और उपहास बनाया गया।उसके पश्चात भी “बांटो और राज करो” की नीति पर चलते हुए दक्षिण भारत में हिंदी विरोध को इतना हवा पानी प्रदान किया गया कि हिंदी को वहां अछूत बना दी गयी और आज स्थिति ये है कि कोई भी राजनैतिक दल सत्ता में आ जाय अपनी गद्दी की चिंता में हिंदी को वहां सम्मान प्रदान कराने का साहस नहीं करेगा।आज भी कोई भी राजनैतिक दल,कोई भी नेता कोई भी सुधारक,भाषा वेत्ता हिंदी के विषय में अपनी आवाज़ उठाना ही भूल गया है अतःकोई स्वर ही सुनायी नहीं देता सरकार के पास तो दृढ इच्छा शक्ति व एक नीति का अभाव है ही।
हिन्दी दिवस और राजभाषा पखवाडे के औपचारिक आयोजन मेरी दृष्टि में अपनी सार्थकता पूरी तरह खो चुके हैं और उनपर रूपये खर्च करने का कोई औचत्य नहीं है।
आस्ट्रिया, बुल्गारिया, नीदरलैड, हंगरी, डेनमार्क, इटली और बोस्निया जेसे छोटे और स्वाभिमानी देष अपनी भाषा को अपना जीवन बनाकर समृद्व जीवन जी रहे है।अमेरिका, चीन, रूस, फ्रांस , ब्रिटेन, जर्मनी और जापान जैसे बड़े और शक्तिशाली देशों मे शिक्षा का माध्यम उनकी अपनी भाषाएं है। इसी कारण इन देशों मे शिक्षित लोग शत प्रतिशत है। लेकिन भारत मे शिक्षा का क्या हाल है किसी से छुपा नही है। आज विडंबना यह है कि शहर की बात तो छोडिए, गाँव और देहात के लोग भी अपना पेट काटकर बच्चों को अंग्रेजी माध्यम मे ही दाखिले की तमन्ना रखते है। विकल्प न होने के ही स्थिति मे वे हिंदी स्कूलो का दरवाजा बड़े बोझिल मन से खटखटाते हैं। अभिभावकों को आज मालूम है कि यदि बच्चों को अंग्रेजी नही आएगी तो उसके सारे गुण बेकार है। अंग्रेजी माध्यम मे विभिन्न विषयों की पढ़ाई बच्चों को पढाई से दूर कर रही है।

विवेक मनचन्दा ,लखनऊ

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply