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विश्व खाद्य दिवस ’16 अक्टूबर’ और भूख से मरते लोग

मेरे विचार
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विश्व खाद्य दिवस प्रत्येक वर्ष ’16 अक्टूबर’ को मनाया जाता है। इस दिवस को मनाते हुए बत्तीस वर्ष हो चुके हैं, लेकिन दुनिया भर में भूखे पेट सोने वालों की संख्या में कमी नहीं आई है। यह संख्या आज भी तेज़ी से बढती जा रही है। विश्व में आज भी कई लोग ऐसे हैं, जो भूखमरी से जूझ रहे हैं। इस मामले में विकासशील या विकसित देशों में किसी तरह का कोई फ़र्क़ नहीं है। विश्व की आबादी वर्ष 2050 तक नौ अरब होने का अनुमान लगाया जा रहा है और इसमें करीब 80 फीसदी लोग विकासशील देशों में रहेंगे। ऐसे में किस तरह खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित की जाए, यह एक बड़ा प्रश्न है। दुनिया में एक तरफ़ तो ऐसे लोग हैं, जिनके घर में खाना खूब बर्बाद होता है और फेंक दिया जाता है। वहीं दूसरी ओर ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है, जिन्हें एक समय का भोजन भी नहीं मिल पाता। खाद्यान्न की इसी समस्या को देखते हुए ’16 अक्टूबर’ को हर साल ‘विश्व खाद्य दिवस’ मनाने की घोषणा की गई थी।
खुद को उभरती हुई आर्थिक शक्ति मानकर गर्व करने वाले भारत के लिए यह खबर शर्मनाक है। दुनिया में भुखमरी के शिकार जितने लोग हैं,उनमें से एक चौथाई लोग सिर्फ भारत रहते हैं। भुखमरी के मामले में हमारे हालात पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे मुल्कों से भी कहीं ज्यादा खराब हैं। भुखमरी मापने वाले सूचकांक ग्लोबल हंगर इंडेक्स(GHI)ने 2011-2013 की अपनी रिपोर्ट में भारत को इस मामले में 63वें स्थान पर रखा है। इस सूची में चीन छठे नंबर पर है।यह रिपोर्ट हमारे देश के लिए शर्मनाक तो है ही, सरकार के उन तमाम दावों को भी नकार देती है, जो विकास का दावा करते हैं।स्थिति कितनी बुरी है इसका इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि सूचकांक में भारत को 63वें स्थान पर रखा गया है,जबकि श्रीलंका 43वें, पाकिस्तान 57वें, बांग्लादेश 58वें नंबर पर है।
वर्ष 2012 में भारत जीएचआई के मामले में 67वें स्थान पर था। ताजा सूचकांक के अनुसार भारत में भूखमरी के कागार पर पहुंचे लोगों की स्थिति अभी खतरनाक स्तर पर है।यह बात इस तथ्य से साबित होती है कि 5 साल से कम उम्र के 40 प्रतिशत से अधिक बच्चों का वजन सामान्य से कम है।Food waste image
संयुक्त राष्ट्र ने दुनिया भर में भुखमरी को कम करने के लिए 2000 में जो लक्ष्य तय किया, उसे हासिल करना संभव नहीं दिख रहा है। लेकिन यूएन की रिपोर्ट के मुताबिक तब से गरीबी से निपटने में काफी कामयाबी मिली है।
वर्ष 2000 में संयुक्त राष्ट्र के सभी 192 सदस्य देशों ने आठ सहस्राब्दी विकास लक्ष्य निर्धारित किए थे जिन्हें 2015 तक हासिल किया जाना है। 2011 की प्रगति रिपोर्ट दिखाती हैं कि अत्यधिक गरीबी और भुखमरी को खत्म करने से पहले लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में मिले जुले नतीजे मिले हैं। पहले विकास लक्ष्य के तहत उन लोगों की संख्या में 50 प्रतिशत की कमी लाई जानी है जो कुपोषण का शिकार हैं।लेकिन आंकड़े दिखाते हैं कि ऐसे लोगों का अनुपात 1990 में बीस प्रतिशत के मुकाबले घट कर सिर्फ 16 प्रतिशत ही हो पाया है।
रिपोर्ट कहती है,”विकासशील देशों में 2005-07 में भूखे रहने वाले लोगों की संख्या 16 प्रतिशत पर स्थिर है, हालांकि अत्यधिक गरीबी से निपटने में खासी सफलता मिली है।इस रुझान के आधार पर आर्थिक संकट और खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतों को देखते हुए विकासशील दुनिया के बहुत से इलाकों में भुखमरी में कटौती के लक्ष्य को हासिल करना मुश्किल है।”
भारत की हालत पहले से भले ही बेहतर हुई हो लेकिन कई पड़ोसी मुल्कों से बदतर है।विकसित देशों की बात जाने भी दें तो पाकिस्तान और बांग्लादेश से ज्यादा भुखमरी हमारे देश में है।
एक ओर हमारे और आपके घर में रोज सुबह रात का बचा हुआ खाना बासी समझकर फेंक दिया जाता है तो वहीं दूसरी ओर कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें एक वक्त का खाना तक नसीब नहीं होता और वह भूख से मर रहे हैं। कमोबेश हर विकसित और विकासशील देश की यही कहानी है। दुनिया में पैदा किए जाने वाले खाद्य पदार्थ में से करीब आधा हर साल बिना खाए सड़ जाता है। गरीब देशों में इनकी बड़ी मात्रा खेतों के नजदीक ही बर्बाद हो जाती है। विशेषज्ञों के अनुसार इस बर्बादी को आसानी से आधा किया जा सकता है। अगर ऐसा किया जा सके तो यह एक तरह से पैदावार में 15-25 फीसदी वृद्धि के बराबर होगी। अमीर देश भी अपने कुल खाद्यान्न उत्पादन का करीब आधा बर्बाद कर देते हैं लेकिन इनके तरीके जरा हटकर होते हैं।
दुनिया में आज भी करोड़ों की संख्‍या में ऐसे लोग हैं, जिनके लिए पेट भर भोजन पाना एक चुनौती है, वहीं दूसरी तरफ ऐसा भी है कि दुनिया भर में पैदा होने वाला एक तिहाई अन्‍न बर्बाद हो जाता है। जिसकी कीमत लगभग 47 लाख करोड़ है जो कि स्विटजरलैंड के सकल घरेलू उत्‍पाद के बराबर है। जी हां, संयुक्‍त राष्‍ट्र की फूड एजेंसी की रिपोर्ट के मुताबिक हर साल 1.3 बिलियन टन (करीब 1300 करोड़ क्विंटल) खाना जो कि विश्‍व भर में होने वाले अन्‍न उत्‍पादन का एक तिहाई है, नष्‍ट हो जाता है।
रिपोर्ट में बताया गया है कि विकसित देश अन्‍न को बर्बाद कर रहे हैं, जबकि विकासशील देशों में इसके रखरखाव का समुचित प्रबंध न होने के कारण ऐसा हो रहा है। खाद्य एजेंसी के प्रमुख जोस ग्रेजियाना का कहना है कि नष्‍ट होने वाले अन्‍न का आंकड़ा 750 बिलियन डॉलर है। वहीं संयुक्‍त राष्‍ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के अध्‍यक्ष एचिम स्‍टीनर ने इन आंकड़ों को चौंकाने वाला बताया है। उनका यह भी कहना है कि इसने हमें अप्रत्‍यक्ष रूप से नुकसान पहुंचाया है।
भूख से हो रही मौतों के सन्दर्भ में वर्ष 1996 में रोम में एक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन हुआ था। इसमें 180 देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने एक स्वर से कहा था कि भूख से हो रही मौतें बहुत ही शर्मनाक बात है। सम्मेलन में यह भी संकल्प लिया गया था कि सन् 2015 तक वि·श्वभर से आधी भुखमरी मिटा दी जाएगी। किन्तु इस सम्बंध में कोई ठोस प्रयास अभी तक नहीं हुआ है। फलस्वरूप दिनोंदिन भूख से मरने वालों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। उल्लेखनीय है कि इस समय दुनियाभर में 80 करोड़ ऐसे लोग हैं, जिन्हें दो जून की रोटी नहीं मिल पाती है। और अनुमान है कि 2015 तक यह संख्या डेढ़ अरब तक पहुंच जाएगी। इन 80 करोड़ में से लगभग 40 करोड़ लोग भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश में हैं। यानी दुनिया में जितने भूखे हैं, उसका आधा भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश में हैं। यह उस समय की बात है, जब इन देशों में खाद्यान्नों के अतिरिक्त भण्डार भी भरे पड़े हैं। तो फिर आम लोग भूख से क्यों मरते हैं? अन्न वितरण व्यवस्था में कहां कमी है और इसके लिए कौन जिम्मेदार है?
विश्वभर में में प्रतिदिन 24 हजार लोग किसी जानलेवा बीमारी से नहीं, बल्कि भूख से मरते हैं। इस संख्या का एक तिहाई हिस्सा भारत के हिस्से में आता है। भूख से मरने वाले इन 24 हजार में से 18 हजार बच्चे हैं। और इन 18 हजार का एक तिहाई यानी 6 हजार बच्चे भारतीय हैं। लेकिन क्या पिछले 66 वर्षों में देशभर में इस बारे में कोई चिन्ता की गई? क्या संसद में इस सम्बंध में कोई बहस हुई?
लेकिन अफसोस तो यह कि दुनिया भर में निर्यात करने वाले देश में ही 30 करोड़ गरीब जनता भूखी सोती है। फिर हम इस खुशफहमी में कैसे जी सकते हैं कि भारत कृषि प्रधान देश है, जो सबका पेट भरता है। अगर वाकई ऐसा है तो हमारा देश भूखा क्यों हैं? आज भी छत्तीसगढ़, बुंदेलखंड, उड़ीसा, झारखंड व बिहार में भुखमरी का प्रतिशत ज्यादा क्यों बना हुआ है?
सड़ता अन्न 2एक तरफ देश में भुखमरी का खतरा मंडरा रहा है वहीं सरकारी लापरवाही के चलते लाखों टन अनाज बारिश की भेंट चढ़ रहा है। हर साल गेहूं सड़ने से करीब 450 करोड़ रूपए का नुकसान होता है। यह तो बीते सालों के आंकड़ें कहते हैं, जबकि इस साल तो अनाज सड़ने के इतने बड़े आंकड़े सामने आए हैं कि दांतों तले उंगली दबाने पर मजबूर हैं। हाल ही में इतना अनाज सड़ चुका है कि उससे साल भर करोड़ों भूखों का पेट भर सकता था, जो भ्रष्टाचार के गलियारों में पनपती लापरवाही की सीलन में सड़ गया।
क्या कहते हैं आँकड़ें ।एक तिहाई खाना वेबजह बर्बाद हो जाता है।अमीर देशों में ग्राहक उतना खाना बर्बाद कर देते हैं जितना सब-सहारा अफ़्रीका में उत्पादन होता है।सब लोगों का पेट भरना है तो 2050 तक 70 फीसदी और अनाज पैदा करना होगा।मक्के का भंडार 1998 के बाद से आधा हो गया है।खाद्य पदार्थों की बढ़ी कीमतों के कारण 10 करोड़ लोग भुखमरी का शिकार हैं।विश्व में आठ में से एक के पास पर्याप्त खाना नहीं है।
फूड एजेंसी की रिपोर्ट के अनुसार एशियाई देशों चीन, जापान और दक्षिण कोरिया में हर साल प्रतिव्‍यक्ति करीब 100 किग्रा सब्‍जी और 80 किग्रा चावल बर्बाद हो रहा है। इन उद्यमशील देशों में अन्‍न की सर्वाधिक बर्बादी होती है।
महंगाई से आम आदमी परेशान है, खाद्य पदार्थों के दाम आसमान छू रहे हैं, लेकिन सरकार को यह गवारा नहीं कि जब उसके पास इफरात में अनाज का भंडार है तो वह उसे खुले बाज़ार में क्यों नहीं जारी कर देती। भले ही गोदामों में अनाज चूहे खाते रहें, अनाज पानी में पड़ा सड़ता रहे, लेकिन मजाल है कि वह अनाज भूख से तिल-तिल मरती जनता तक पहुंच जाए। सुप्रीमकोर्ट ने ठीक ही यह सवाल उठाया है कि यदि सरकार के पास इतना अनाज रखने का इंतज़ाम नहीं है तो वह उसे ज़रूरतमंदों को क्यों नहीं बांट देती।
ऐसा नहीं है कि भारत में खाद्य भंडारण के लिए कोई कानून नहीं है। 1979 में खाद्यान्न बचाओ कार्यक्रम शुरू किया गया था। इसके तहत किसानों में जागरूकता पैदा करने और उन्हें सस्ते दामों पर भंडारण के लिए टंकियां उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा गया था। लेकिन इसके बावजूद आज भी लाखों टन अनाज बर्बाद होता है। तमाम लोग दो वक्त की रोटी जुटाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इसी जद्दोजहद में गरीब दम तक तोड़ देते हैं, जबकि सरकार के पास अनाज रखने को जगह नहीं है।
अनाज पर आत्मनिर्भरता का दावा करने वाला भारत अनाज भंडारण के कुप्रबंधन की मार झेल रहा है,जिसके चलते टनों-टन अनाज प्रतिवर्ष सड़ जाता है| जिसका परिणाम देश में भुखमरी व महंगाई के रूप में हमारे सामने है।देश के ये हालात कोई नए नहीं है, आजादी के छह दशक बाद भी गरीबों के पेट की भूख लगातार बढ़ी, कुपोषण में भी बढ़ोत्त्तरी हुई, भुखमरी से मरने वालों की संख्या में भी इजाफा हुआ। इसी के साथ देश के लिए चुनौती पूर्ण सवाल ये है कि आखिर खाद्य सामग्री की सुरक्षा किस स्तर से हो रही है ? खुले में पड़े लाखों टन अनाज को मात्र तिरपाल और चादरों के सहारे सुरक्षित रखने की समझ किसी नासमझी से कम नहीं है। मगर साल दर साल इसी तरीके से सब कुछ हो रहा है। देश में कुपोषण का प्रतिशत साल-दर-साल बढ़ रहा है।
देश के दस लोगों के पास जितनी संपत्ति बताई जाती है, उतनी निचले तबके के दस करोड़ लोगों के पास कुल मिलाकर नहीं है।करोड़ों लोगों को दिन शुरू करने के साथ ही यह सोचना पड़ता है कि आज पूरे दिन पेट भरने की व्यवस्था कैसे होगी, वहीं लाखों लोग ऐसे हैं जो तय नहीं कर पाते कि आज उनका पिज्जा खाने का मन है या बर्गर खाने का, उन्हें मटन की डिश चाहिए थी या चिकिन की। करोड़ों जिन कैलोरियों के लिए तरसते हैं उतनी कैलोरियां कुछ लाख लोग मुंह में भर-भर कर सड़कों पर थूक देते हैं या कूड़ेदान में फेंक देते हैं। जिन्हें सबसे ज्यादा इलाज और दवा की जरूरत है, उनके पास न इलाज है न दवा, लेकिन जो पहले से ही स्वस्थ्य हैं उनके स्वास्थ्य का ध्यान रखने के लिए हर गुरु और हर विशेषज्ञ मौजूद हैं। जिनके पास मानसिक और बौद्धिक क्षमताएं हैं, जो उचित शिक्षा और वातावरण पाकर चमत्कारिक ढंग से विकास कर सकते हैं और समाज की बेहतरी में बेहतरीन योगदान दे सकते हैं उनके पास कोई अवसर नहीं है।सर्वाधिक बर्बादी सामूहिक भोज के मौकों पर होती है। भोज समारोह में पश्चिमी संस्कृति की तर्ज पर बूफे का चलन बढा है। बूफे यानी स्वरुचि भोजन को खुद से प्लेट में निकालकर खाने का विधान। एक भाव में इस तरीके से भोजन की कम बर्बादी होनी चाहिए थी। एक अनुमान के मुताबिक़, साल 2004-05 में 9,918 करोड़ रुपये का अनाज कालाबाज़ारी के ज़रिए बाज़ार में पहुंचा तो 2005-06 में यह लूट 10,330 करोड़ रुपये और 2006-07 में यह बढ़कर 11,336 करोड़ रुपये आंकी गई। यानी इन 3 सालों में ज़रूरतमंद ग़रीबों को आवंटित 31,500 करोड़ रुपये का गेहूं-चावल राशन डीलर, नौकरशाह एवं सियासी लीडरों ने आपस में मिल-बांटकर डकार लिया और ग़रीब मुंह ताकता रह गया। कुल मिलाकर सार्वजनिक वितरण प्रणाली में फैले भ्रष्टाचार से निजात और अनाज के भंडारण की उचित व्यवस्था जब तक सरकार की प्राथमिकता में शामिल नहीं होगी, तब तक सरकारी सब्सिडी और अनाज की बर्बादी नहीं रुक पाएगी।
यह विडंबना ही है कि एक ओर अनाज गोदामों में जगह न होने के कारण सड़ रहा है, तो दूसरी ओर गरीब भूखों मरने को अभिशप्त हैं। अनाजों के सड़ाने का एक अर्थशास्त्र यह भी देखा गया है कि 12 रुपये प्रति किलो के हिसाब से खरीदे गए गेहूं को सड़ाकर 6.20 प्रति किलो की दर से शराब कंपनियों को बेच दिया जाता है। यानी जितना अधिक अन्न सड़ेगा, शराब कंपनियों को उतना ही अधिक लाभ होगा। अतिरिक्त खाद्यान्न खरीद कर किसानों को समर्थन मूल्य देने, आपदा, अकाल या जनकल्याणकारी योजनाएं संचालित करने के उद्देश्य से स्थापित भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) ने भंडारण क्षमता बढ़ाने के लिए सार्थक पहल नहीं की है।
दरअसल देखा जाए तो अनाज से शराब या ईंधन उत्पादन के लिए रास्ता निकालने के बहाने उन्हें सड़ाने या नष्ट करने का खेल वैश्विक स्तर पर खेला जा रहा है। इंस्टीट्यूशन ऑफ मैकेनिकल इंजीनियर्स की वैश्विक रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया भर में जितना अनाज पैदा होता है, उसमें से करीब-करीब आधा अनाज ही मनुष्यों के काम आ पाता है। अमेरिका और यूरोप में जितना अन्न बर्बाद किया जाता है, उससे बाकी दुनिया की भूख मिटाई जा सकती है। अमेरिका अपने उत्पादित अन्न का 40 प्रतिशत फेंक देता है और ब्रिटेन में साल भर में 83 लाख टन अन्न कूड़े में डाल दिया जाता है। ऐसा नहीं है कि अमेरिका में भूखे नहीं हैं। पूरे विश्व में 2010 में 92 करोड़ 50 लाख लोगों को भरपेट अन्न नहीं मिला। ऐसे में वैश्विक स्तर पर भूखों के प्रति व्यवस्था का क्रूर चेहरा दिखाई देता है ।
पिछले दिनों केंद्र सरकार का बहु प्रतीक्षित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक-2013 संसद के दोनों सदनों में पारित हो चूका है। इस विधेयक का मुख्य उद्देश्य देश की दो तिहाई अबादी को भारी सब्सिड़ी वाला खाद्यान्न अधिकार के तौर पर प्रदान करना है। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक-2013 के तहत लाभांवित परिवारों में से प्रत्येक व्यक्ति के लिए तीन रूपये से एक रूपये प्रति किलोग्राम की दर से प्रति माह पांच किलो चावल, गेहूं या मोटे अनाज की गारंटी होनी है। इस विधेयक में देश की 82 करोड़ आबादी को सस्ती दर पर अनाज मुहैया कराने का प्रावधान है। विधेयक के कानून बनने के बाद भारत की यह खाद्य सुरक्षा योजना भूख से लड़ाई के मामले में दुनिया का सबसे बड़ा कार्यक्रम होना है।
अभी हम अन्न की बर्बादी के अप्रत्यक्ष परिणामों से वाकिफ नहीं हैं। इसका बड़ा खामियाजा हमारी आने वाली पीढ़ी को भुगतना पड़ेगा। अगले 37 वर्षो में हमारी जनसंख्या दो अरब और बढ़ने वाली है। तब हम सबको अन्न कैसे उपलब्ध करा पाएंगे?कृषि क्षेत्र लगातार सरकारी उपेक्षा का शिकार हो रहा है। आज देश की अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी मात्र 14 फीसदी है और इस पर 55 फीसदी कामगारों की आजीविका चलती है। आज कृषि क्षेत्र कभी एक फीसदी, दो फीसदी या फिर ऋणात्मक दर से वृद्धि कर रहा है। आजादी के 65 वर्ष बीत जाने के बाद आज भी साठ फीसदी खेती वर्षा के सहारे हो रही है।विश्व की आबादी 2050 तक नौ अरब होने का अनुमान लगाया जा रहा है और इसमें करीब 80 फीसदी लोग विकासशील देशों में रहेंगे। ऐसे में किस तरह खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित किया जाए, यह एक बड़ा प्रश्न है।भूख की वैश्विक समस्या को तभी हल किया जा सकता है, जब उत्पादन बढ़ाया जाए। साथ ही उससे जुड़े अन्य पहलुओं पर भी समान रूप से नजर रखी जाए। खाद्यान्न सुरक्षा तभी संभव है, जब सभी लोगों को हर समय, पर्याप्त, सुरक्षित और पोषक तत्वों से युक्त खाद्यान्न मिले, जो उनकी आहार संबंधी आवश्यकताओं को पूरा कर सके। साथ ही कुपोषण का रिश्ता गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, आदि से भी है। इसलिए कई मोर्चों पर एक साथ मजबूत इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करना होगा।
विवेक मनचन्दा ,लखनऊ

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