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आम आदमी पार्टी “आप” की दस्तक

मेरे विचार
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ARVIND KEJRIWALआम आदमी पार्टी (आप) के दिल्ली विधानसभा चुनाव में शानदार प्रदर्शन ने सनसनी-सी फैला दी है। इसके चलते कई समीक्षक अपनी भविष्यवाणियों का फिर से मूल्यांकन कर रहे हैं। दिल्ली में नरेंद्र मोदी ने एड़ी चोटी का जोर लगा दिया था, लेकिन उनकी पार्टी को बहुमत नहीं मिल पाया। दिल्ली विधानसभा का चुनाव वास्तव में शुध्द रूप से नरेन्द्र मोदी का चुनाव था, क्योंकि यहां उन्होंने अपने मनमाफिक मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार तैनात करवाया था और खुद ही कई कई सभाएं की थीं, लेकिन सरकार बनाने भर को बहुमत नहीं जुटा सके। आम आदमी पार्टी के रूप में एक नई राजनीतिक ताकत आ गई।
आम आदमी पार्टी (आप) या आम लोगों की पार्टी है, जो जबरदस्त भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के चलते जन्मी और उन हालात में पनपी जो बड़े सियासी दलों के मोहभंग से पैदा हुए।इसी लहर पर सवार हो कर इस पार्टी ने दिल्ली चुनावों में शानदार आगाज किया।आप ने दिल्ली में 70 में 28 सीटें जीतीं। उससे भी कहीं ज्यादा अहम ये है कि 30 फीसदी से ज्यादा वोट हासिल कर उसने सत्ताधारी कांग्रेस को रौंदा ही नहीं, बल्कि सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी भाजपा को सकते में डाल दिया।AAP
किसी ज़माने में बेहद कम बोलने वाले सरकारी अधिकारी से लोकप्रिय नेता बने अरविंद केजरीवाल एक बड़ी ताकत बनकर उभरे हैं, उन्होंने चौथी बार मुख्यमंत्री बनने की उम्मीद लगाए बुजुर्ग कांग्रेसी नेता और मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को हार का स्वाद चखा दिया।1980 के दशक में आंध्र प्रदेश में उभरी तेलुगूदेशम पार्टी के उदय को छोड़ दें तो देश ने शायद ही कोई ऐसा सियासी आगाज देखा हो।विश्लेषकों का कहना है कि आप ने खुद को विश्वसनीय विकल्प के रूप में उस जनता के सामने पेश किया, जो भ्रष्टाचार, उदासीन नेताओं और अत्यधिक महंगाई से तंग आ चुकी थी। उन्हें विश्वास हुआ कि ये दल चुनावों में तस्वीर बदल सकता है।इसी के चलते भाजपा को अपना मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बदलना पड़ा, 70 अलग-अलग विधानसभाओं के लिए अलग घोषणापत्र तैयार करने पड़े, दक्षता से सोशल मीडिया का इस्तेमाल करना पड़ा। साथ ही लगातार जनोन्मुखी ईमानदार राजनीति का वादा भी करना पड़ा।
दिल्ली विधानसभा के चुनाव में 70 में से इस पार्टी को 28 सीटें मिली हैं। जबकि, सरकार बनाने के लिए कम से कम 36 विधायकों की जरूरत है। लेकिन, इस बार यहां जनादेश ऐसा आया कि किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला। सत्ता की तीन पारी खेल चुकी कांग्रेस को तो महज 8 सीटें ही हासिल हो पाईं। भाजपा को 32 सीटें जरूर मिलीं। लेकिन, 4 सीटों की कमी के चलते वे सत्ता पाने से दूर हो गए। हालात तो यह हो गए थे कि दिल्ली में दोबारा चुनाव होने के आसार बन गए थे। क्योंकि, भाजपा ने उपराज्यपाल से मिलकर कह दिया था कि वे सरकार गठित करने की स्थिति में नहीं हैं। जबकि, ‘आप’ के नेतृत्व ने पहले ही ऐलान किया था कि न वे किसी को समर्थन देंगे और न ही किसी का समर्थन लेंगे।
इसी को लेकर दिल्ली में सत्ता का पेंच कई दिनों तक फंसा रहा था। संवेदनशील सियासी हालात देखकर कांग्रेस ने बिना शर्त के ‘आप’ नेतृत्व को समर्थन देने का ऐलान किया था। जबकि, ‘आप’ के नेताओं ने किसी से समर्थन मांगा भी नहीं था। इसी को लेकर पिछले एक पखवाड़े से जद्दोजहद चलती आई है।
केजरीवाल ने तो दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को उनके घर में धूल चटाई। इन सबके बाद केजरीवाल ने ये उम्मीद कभी नहीं की होगी कि सरकार बनाने के लिए उन्हें कांग्रेस बिना शर्त समर्थन देगी।
आखिर कांग्रेस इतनी उदार क्यों हो गई? यह उस आत्मचिंतन का नतीजा तो नहीं जिसका जिक्र राहुल गांधी ने विधानसभा चुनावों में मिली हार के बाद किया था या फिर इसके पीछे भी है कोई सियासी चाल? ऐसा लगता है कि राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा के हाथों मिली करारी हार के बाद कांग्रेस नेताओं ने पार्टी का भविष्य देख लिया है। उन्हें इस बात का एहसास हो गया है कि 2014 में पार्टी की हार तय है। कोशिश यही है कि मुख्य विरोधी नरेंद्र मोदी की जीत के दायरे को कम किया जाए, और इसी वजह से कांग्रेस आम आदमी पार्टी को बढ़ावा दे रही है। उम्मीद यह है कि एंटी करप्शन मुद्दे पर मतदाताओं के दिल में छाप छोड़ने वाले केजरीवाल खासकर शहरी क्षेत्रों में भाजपा के वोट शेयर में सेंध लगाने में कामयाब होंगे।
अन्ना ने देशभर में घूम-घूमकर यही कहा कि जब तक राजनेताओं की राजनीति भ्रष्टाचार से ग्रसित रहेगी, तब तक आम आदमी को राहत नहीं मिल सकती। इसके साथ ही इनकी राजनीति से महात्मा गांधी का सपना भी कभी पूरा नहीं हो सकता। क्योंकि, ये सरकारें छल, छद्म व भ्रष्टाचार से ही संचालित हैं। ऐसे में, अन्ना के सिपहसालारों के बीच यह बहस तेज हुई थी कि साफ-सुथरी राजनीति के लिए क्या लोगों के सामने नया राजनीतिक विकल्प देने की जरूरत है?
इस पर अन्ना की लाइन यही रही कि वे राजनीति में नहीं आना चाहते और समाज सुधारक के रूप में ही अपनी भूमिका निभाना चाहते हैं। जबकि, केजरीवाल जैसे युवाओं ने जोर दिया कि यदि सियासत को पाक साफ करना है, तो जनता को एक नया राजनीतिक विकल्प देना ही होगा। इसी एजेंडे पर करीब सवा साल पहले केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी (आप) का गठन कर डाला। हालांकि, अन्ना इस पहल के खिलाफ थे। सो, वे अलग हो गए। इस तरह से अन्ना आंदोलन के गर्भ से ही इस पार्टी का जन्म हुआ है। केजरीवाल इसके संयोजक बने और इन्होंने अपनी चुनावी राजनीति का प्रयोग दिल्ली से शुरू किया।
विधानसभा चुनावों में जब इन लोगों ने अपनी हुंकार भरी थी, तो यही कहा जा रहा था कि केजरीवाल की पार्टी ज्यादा से ज्यादा ‘वोट कटुआ’ की भूमिका में आ सकती है। क्योंकि, न इनके पास अनुभवी टीम है और न ही इनके पास कोई धन-बल है। इस तरह की नकारात्मक चर्चाओं के बावजूद टीम केजरीवाल का हौसला बना रहा। ये लोग यही कहते रहे कि वे राजनीति के मायने बदलने आए हैं। ऐसे में, चुनाव जीतने के लिए उन हथियारों का इस्तेमाल नहीं करेंगे, जो भाजपा और कांग्रेस जैसी पार्टियां करती आई हैं।
इन लोगों ने जो कहा था वही करके दिखाया भी। इनके पास नौजवानों की ऐसी टीम थी, जिसे परंपरागत सियासत का कोई अनुभव नहीं था। इन लोगों ने अपने हौसले से इसी अनाड़ीपन को खुद की ताकत बना ली। मीडिया भी इनकी सफलता को लेकर आखिरी समय तक आशंकित रहा। आम तौर पर अनुमान यही लगाया गया था कि ये पार्टी दो-चार सीट जीत ले, यही इसकी उपलब्धि होगी। लेकिन, 8 दिसंबर को जो नतीजे आए, उसने सब को चौंका दिया।
इस पार्टी ने कांग्रेस को बुरी तरह से शिकस्त दी है। भाजपा को इस पार्टी के मुकाबले कुछ सीटें ज्यादा मिली हैं। लेकिन, जीत का असली सिकंदर केजरीवाल को ही माना गया है।केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने आम आदमी पार्टी [आप] के उदय को सभी राजनीतिक दलों के लिए खतरे की घंटी बताया है। रमेश ने कहा, ‘आम आदमी पार्टी ने राजनीतिक परिदृश्य को फिर से परिभाषित किया है। उसने राजनीतिक बहस को भी बदल दिया है। फिलहाल यह सिर्फ दिल्ली तक सीमित है। लेकिन, यदि कांग्रेस, भाजपा और अन्य क्षेत्रीय पार्टियां जनता की आवाज नहीं सुनेंगी तो जल्द ही इतिहास में परिवर्तित हो जाएंगे।’ रमेश के मुताबिक दिल्ली विधानसभा चुनाव में आप का प्रदर्शन जनता की जीत है और इसका उदय सभी दलों के लिए चेतावनी भी है।
आप’ के अलावा भी इस बार के विधानसभा चुनाव इसलिए बड़े कौतूहल से देखे जा रहे थे कि इन्हें 2014 की लड़ाई की अँगड़ाई माना जा रहा था। बात सही भी है। देश के राजनीतिक इतिहास में ऐसा चुनावी युद्ध शायद ही पहले कभी हुआ हो। नेतृत्व के संकट से जूझ रही काँग्रेस अपने अस्तित्व के लिए छटपटा रही है, भाजपा को लगता है कि यह उसके लिए ‘अभी नहीं तो कभी नहीं’ जैसा मौक़ा है और नरेन्द्र मोदी के आक्रामक नेतृत्व में वह देश की राजनीति की धारा बदल सकने के सर्वोत्तम अवसर के मुहाने पर खड़ी है। उधर मुलायम, माया, ममता, जयललिता, नीतिश, नवीन, जगन, चन्द्रबाबू समेत तमाम सूबाई क्षत्रपों को लगता है कि यही मौक़ा है, जब चुनाव बाद उनकी बड़ी भूमिका हो सकती है और कौन जाने देवेगौड़ा और गुजराल की तरह किसी का प्रधानमंत्री बनने का नम्बर भी लग जाये!
अब तक यह सब गणित ठीक चल रहा था, लेकिन दिल्ली फ़तह के बाद ‘आप’ के ‘भारत विजय’ के इरादों ने अब तक बड़ी मेहनत से सजाई गयी चौसर में नये पाँसे फेंक कर पूरा खेल तहस-नहस कर दिया है। ‘आप’ के साथ समस्या यह है कि परम्परागत राजनीति के दाँव से न यह खेलती है और न वे इस पर असर करते हैं। यह अनुमान भी नहीं लग पाता कि कहाँ इसके उम्मीदवार मज़बूत हैं और कहाँ कमज़ोर, कहाँ इसके समर्थक कम हैं, कहाँ ज़्यादा, क्योंकि इसके समर्थकों की कोई ख़ास पहचान है ही नहीं। इसके चुनाव प्रचार से भी पकड़ पाना मुश्किल होता है कि कहाँ इसकी अपील है और कहाँ नहीं। न बड़ी रैलियाँ और न न्यूज़ चैनलों पर ‘लाइव प्रसारित’ हो सकने वाले भाषण! इसलिए पता ही नहीं चलता कि वे चुनाव लड़ भी रहे हैं या नहीं, लड़ पा रहे हैं या नहीं। दिल्ली में यही हुआ।मतदान के बाद तक बड़े-बड़े चुनावी पंडितों, एक्ज़िट पोल मास्टरों को ‘आप’की कोई हवा ही नहीं लग सकी!
देश के सभी राजनीतिक दल अब अरविन्द केजरीवाल और उनकी बनाई पार्टी “आप” को तरजीह देने लगे हैं। “आप” की शानदार सफलता ने भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी के लिए भी खतरे की घंटी बजा दी है। माना जा रहा है कि आगामी लोकसभा चुनावों में आप अगर 20-25 सीटें भी जीत लेती है तो नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्री बनना मुश्किल हो सकता है क्योंकि अगर भाजपा और उसके सहयोगियों की झोली में 272 से कम सीटें आती हैं तो उसके लिए बहुमत जुटाना मुश्किल ही नहीं असम्भव भी होगा।
आम आदमी पार्टी की ऐतिहासिक सफलता और लोकसभा चुनाव लड़ने के ऐलान के बाद खलबली मच गई है। इस बात की चर्चा तेज हो गई है कि क्या भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी का रथ रुक जाएगा। भाजपा भी अब दबी जुबान में ही सही, आम आदमी पार्टी को भी चुनावी मैदान का बड़ा खिलाड़ी मानने लगी है।
भाजपा के एक तबके का मानना है कि अगर आम आदमी पार्टी को 50 से साठ सीट भी मिल गई तो पार्टी की हसरतों पर पानी फिर जाएगा। उधर कांग्रेस इस राजनीतिक खेल से किनारा करने की फिराक में है। जबकि आम आदमी पार्टी जोरशोर से लोकसभा चुनाव की तैयारियों में जुटी गई है।
सियासी हलकों में ये सवाल जोर-शोर से गूंज रहा है। लेकिन आम आदमी पार्टी तो अब आ चुकी है। और वो जब दिल्ली में अपनी सरकार बना चुकी है तो देशभर में चुनाव लड़ने की ताल ठोक रही है। अभी भले इनकार हो लेकिन हो सकता है कि आने वाले दिनों में अरविंद केजरीवाल उसके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हो जाएं। 15 जनवरी तक आम आदमी पार्टी से चुनाव लड़ने के इच्छुक लोग ‘आप’ की वेबसाइट पर फॉर्म भर सकते हैं। आने वाले दिनों में आम आदमी पार्टी अपनी पहली लिस्ट जारी कर सकती है।

आप का इतना असर दिखाई देने लगा है कि सडकों पर अब कई लोग आप की टोपी पहने घूम रहे हैं तथा चौक चौराहों पर बातचीत का केन्द्र बिन्दु भी आप ही बना हुआ है। पहली बार आम लोगों को यह लगा कि राजनीति धन बल और बाहुबलियों से निकल कर आम आदमी की पहुंच में आ रही है। जो लोग राजनीति में आने के लिये अब तक प्रयास कर रहे थे उन्हें भी अपना सपना साकार होता दिखाई दे रहा है।
दिल्ली की सत्ता में काबिज आम आदमी पार्टी (आप) की सादगी से अन्य राजनीतिक दल खौफजदा हैं, यही वजह है कि छत्तीसगढ़ में भी सियासी दलों ने आम आदमी पार्टी की नकल करनी शुरू कर दी है। सत्ताधारी भाजपा अपने विधायकों को सादगी की सीख दे रही है, वहीं मंत्रियों को मिली सुविधाएं व सुरक्षा यथावत है। दूसरी तरफ कांग्रेस की ओर से नेता प्रतिपक्ष टीएस सिंहदेव ने लालबत्ती व सुरक्षा लेने से इनकार कर दिया है, लेकिन उन्होंने भी बंगले के लिए हामी भर दी है। हालांकि इस बंगले का उपयोग वे दफ्तर के तौर पर करेंगे।
“आप” की दस्तक और राजनीति में उनके कार्यो से जो मिसालें पेश हो रही हैं, उनसे राजनीतिक दल सकते में हैं। आज देश में जिस शख्स और पार्टी की चर्चा सबसे जोरों पर हो रही है वह है अरविंद केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी। दिल्ली की जनता ने आम आदमी को चुना और पार्टी सत्ता पर आसीन हो गई। अरविंद केजरीवाल सीएम बन गए और उन्होंने सुरक्षा व बंगला लेने से इनकार कर दिया। यही रणनीति उनके मंत्रियों की भी रही, जो लालबत्ती व सुरक्षा के बगैर जनसंपर्क कर रहे हैं। देश भर में इस सादगी की चर्चा होने लगी। देश में बरसों से सत्ता सीढियों को पाने वाली पार्टियां भी जनता से मिल रही प्रतिक्रिया के चलते सकते में हैं।

विवेक मनचन्दा,लखनऊ

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