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भारतीय राजनीति एक बार फिर निर्णायक करवट लेने वाली है।

मेरे विचार
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आम आदमी पार्टी ने नए तरह की राजनीति की शुरुआत करते हुए दिल्ली में सरकार बनाई थी। पार्टी ने साफ सुथरी, ईमानदार और जनता के हित से जुड़ी राजनीति का संकल्प लेकर दिल्ली में सरकार बनाई। पर अब धीरे -धीरे आदमी पार्टी (आप) के लिए मुश्किलें बढ़ती चली जा रही हैं। दिल्ली सरकार के मंत्री सोमनाथ भारती के आधी रात को छापा मारने, केजरीवाल के दो दिनों तक धरने पर बैठने, विनोद कुमार बिन्नी को बगावत के चलते पार्टी से बाहर करने और कांग्रेस पार्टी से करीब दिखने (कुछ दिनों पहले एक कार्यक्रम में केंद्र सरकार में मंत्री कपिल सिब्बल और अरविंद केजरीवाल की गले मिलते हुए तस्वीर सामने आई थी) के बाद आप की लोकप्रियता का ग्राफ तेजी से नीचे गिरा है। अब कई बातें उसके खिलाफ जाती दिख रही हैं। जनता के बीच अपनी अच्छी छवि के बूते पार्टी ने देश में ही नहीं विदेश में भी लोगों को प्रभावित किया। बड़ी तादाद में विदेश में रहने वाले भारतीयों (एनआरआई) ने आम आदमी पार्टी का खूब समर्थन किया। इन लोगों ने आप को फंड भी दिए।
15 जनवरी से पहले पार्टी को रोजाना औसतन 10 लाख रुपए बतौर दान मिल रहे थे। लेकिन बीते कुछ दिनों से पार्टी को विदेश से बहुत कम चंदा मिल रहा है। 28 दिसंबर को ‘आप’ ने दिल्ली में सरकार बनाई थी। उस दिन पार्टी को 21 लाख रुपए का दान विदेश से मिला था। उसके बाद से पार्टी को हर रोज 40 लाख रुपए से ज्यादा के फंड विदेश से मिल रहे थे। 2 जनवरी से 16 जनवरी के बीच आम आदमी पार्टी को औसतन 36 लाख रुपए हर रोज मिल रहे थे। लेकिन 17 जनवरी के बाद से उसके फंड में जबर्दस्त गिरावट आई। 17 जनवरी से पार्टी को औसतन 6 लाख रुपए का ही फंड रोजाना मिल रहा है।
(आप) सरकार की कार्यशैली से नाराज एनआरआई ने पार्टी से दूरी बनाना शुरू कर दिया है। न्‍यूजीलैंड, ऑस्‍ट्रेलिया और अमेरिका में रह रहे काफी संख्‍या में एनआरआई ने न केवल पार्टी को फंड देना बंद कर दिया है, बल्कि उन्‍होंने ‘आप’ को वोट देने के लिए माफी भी मांगी है।
राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अपने अभिभाषण में इशारों-इशारों में आम आदमी पार्टी (आप) को नसीहत देते हुए दो टूक शब्दों में कहा था कि लोकलुभावन अराजकता सुशासन का विकल्प नहीं हो सकती है। नेताओं को जनता से वही वादे करने चाहिए, जिन्हें वे पूरा कर सकें।
दिल्ली चुनाव में मिली 28 सीटों की जीत के बाद आम आदमी पार्टी पूरे देश में अपना जनाधार बढ़ाना चाह रही है,लेकिन उनके कई बयान आज भी सिरदर्द बने हुए हैं।मुस्लिम तुष्टिकरण से लेकर जम्मू और कश्मीर में सेना की तैनाती को लेकर अरविंद केजरीवाल, कुमार विश्वास, प्रशांत भूषण ने ऐसे-ऐसे बयान दिए हैं, जिनसे समाज के एक वर्ग को तकलीफ हुई है। आप के ऐसे बयान, जो उनके समर्थकों को भी पचाने में दिक्‍कत आ रही है।कुमार विश्वास ने मुस्लिमों को लेकर ऐसा बयान दिया है कि दिल्ली विधानसभा में समर्थन देने वाले जेडीयू विधायक शोएब इकबाल ने समर्थन वापस लेने की धमकी तक दे डाली।खुद आम आदमी पार्टी के सदस्यों ने कुमार विश्वास का कई बार विरोध किया है।शोएब इकबाल ने कहा कि कुमार विश्वास ने ऐसा बयान देकर मुहर्रम का मजाक उड़ाया है। हालांकि, अरविंद केजरीवाल का कहना है कि इस बयान पर कुमार विश्वास पहले ही माफी मांग चुके हैं और इसे तूल नहीं देना चाहिए।दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली के बटला हाउस एनकाउंटर को फर्जी बताया था। हालांकि अब पुलिस ने इसके सारे टूटे तार जोड़कर यह कोर्ट में बता दिया है कि यह कोई फर्जी एनकाउंटर नहीं था।
अरविंद केजरीवाल पर इससे पहले भी मुस्लिमों का साथ देने का आरोप लगता रहा है। तस्लीमा नसरीन और अमेरिकी राष्ट्रपति पर फतवा जारी करने वाले मौलाना तौकीर रजा से केजरीवाल ने चुनाव प्रचार के दौरान हाथ मिलाया था और उनसे चुनाव में प्रचार करने की गुजारिश की थी।दिल्ली के मुख्यमंत्री बन चुके अरविंद केजरीवाल ने पहले तो कह दिया कि वह सरकारी बंगला नहीं लेंगे, लेकिन उसके बाद वह 10 कमरों वाला डूप्ले लेने का तैयार हो गए।हालांकि, मीडिया की रिपोर्टिंग के बाद उन्होंने इसे लेने से ठुकरा दिया। इसके बावजूद उनके समर्थकों में इसको लेकर अब भी नाराजगी है। लोग तो अब यह भी कहने लगे हैं कि क्या अरविंद केजरीवाल केवल बातों के आम आदमी हैं?मीडिया के दबाव से भले ही केजरीवाल ने अपने लिए भगवान दास रोड पर दिल्ली सरकार की तरफ से मिला दस कमरों का फ्लैट छोड़ दिया हो लेकिन इसका गलत संदेश जनता में गया है। फिर उनके मंत्रियों के द्वारा सरकारी गाड़ियों का इस्तेमाल। इन सबको किसी ने मना नहीं किया था, लेकिन ये तो उन्होंने ही जनता से वादा किया था कि हम जनता से किया हर वादा पूरा करेंगे और वीवीआईपी संस्कृति को खत्म करेंगे।
शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया दिल्ली यूनिवर्सिटी में दिल्ली के छात्रों के लिए 90 प्रतिशत आरक्षण की बात कह रहे हैं। यह बयान दिल्ली से बाहर के उन छात्रों को नागवार गुजरा है, जो इस केंद्रीय विश्वविद्यालय में पढ़ने की इच्छा रखते हैं।हालांकि चुनाव से पहले भाजपा ने भी इस तरीके का वादा किया था। इस बयान के बाद मनीष सिसोदिया का विरोध हो रहा है। दिल्ली में बाहर से पढ़ने आए छात्रों ने इस बयान पर ‌उनका विरोध करना शुरू कर दिया है।आम आदमी पार्टी के सदस्य प्रशांत भूषण ने मीडिया से बात करते हुए कहा कि जम्मू और कश्मीर में सेना की तैनाती के सवाल को लेकर राज्य के बाशिंदों के बीच जनमत संग्रह होना चाहिए।भूषण के इस बयान की भी खूब आलोचना हुई। प्रशांत भूषण के इस बयान के बाद विशेषज्ञों ने यहां तक कह दिया कि उन्हें राज्य की जटिलता का अंदाजा नहीं है।
आप’ के अलावा भी इस बार के विधानसभा चुनाव इसलिए बड़े कौतूहल से देखे जा रहे थे कि इन्हें 2014 की लड़ाई की अँगड़ाई माना जा रहा था। बात सही भी है। देश के राजनीतिक इतिहास में ऐसा चुनावी युद्ध शायद ही पहले कभी हुआ हो। नेतृत्व के संकट से जूझ रही काँग्रेस अपने अस्तित्व के लिए छटपटा रही है, भाजपा को लगता है कि यह उसके लिए ‘अभी नहीं तो कभी नहीं’ जैसा मौक़ा है और नरेन्द्र मोदी के आक्रामक नेतृत्व में वह देश की राजनीति की धारा बदल सकने के सर्वोत्तम अवसर के मुहाने पर खड़ी है। उधर मुलायम, माया, ममता, जयललिता, नीतिश, नवीन, जगन, चन्द्रबाबू समेत तमाम सूबाई क्षत्रपों को लगता है कि यही मौक़ा है, जब चुनाव बाद उनकी बड़ी भूमिका हो सकती है और कौन जाने देवेगौड़ा और गुजराल की तरह किसी का प्रधानमंत्री बनने का नम्बर भी लग जाये!
अब तक यह सब गणित ठीक चल रहा था, लेकिन दिल्ली फ़तह के बाद ‘आप’ के ‘भारत विजय’ के इरादों ने अब तक बड़ी मेहनत से सजाई गयी चौसर में नये पाँसे फेंक कर पूरा खेल तहस-नहस कर दिया है। ‘आप’ के साथ समस्या यह है कि परम्परागत राजनीति के दाँव से न यह खेलती है और न वे इस पर असर करते हैं। यह अनुमान भी नहीं लग पाता कि कहाँ इसके उम्मीदवार मज़बूत हैं और कहाँ कमज़ोर, कहाँ इसके समर्थक कम हैं, कहाँ ज़्यादा, क्योंकि इसके समर्थकों की कोई ख़ास पहचान है ही नहीं। इसके चुनाव प्रचार से भी पकड़ पाना मुश्किल होता है कि कहाँ इसकी अपील है और कहाँ नहीं। न बड़ी रैलियाँ और न न्यूज़ चैनलों पर ‘लाइव प्रसारित’ हो सकने वाले भाषण! इसलिए पता ही नहीं चलता कि वे चुनाव लड़ भी रहे हैं या नहीं, लड़ पा रहे हैं या नहीं। दिल्ली में यही हुआ।मतदान के बाद तक बड़े-बड़े चुनावी पंडितों, एक्ज़िट पोल मास्टरों को ‘आप’की कोई हवा ही नहीं लग सकी!
दिल्ली में सरकार बनाने के बाद, लोकसभा चुनाव के लिए ताल ठोंक रही आम आदमी पार्टी ने भाजपा के माथे पर बल डाल दिया है। आम चुनाव को मोदी बनाम राहुल बनाने में जुटी भाजपा के लिए आप की काट खोजना मुश्किल हो रहा है। भाजपा का मानना है कि आम आदमी पार्टी 60 से 70 सीटों पर असर डाल सकती है। इससे उसके मिशन 272 की राह में बाधा खड़ी हो सकती है।
दरअसल भाजपा ने चार विधानसभा चुनावों में से तीन चुनाव जीते हैं। लेकिन दिल्ली की हार ने उसके गुब्बारे से हवा निकाल दी। केजरीवाल और आम आदमी पार्टी के उदय ने इशारा किया कि देश में ऐसे लोगों की कमी नही जो भाजपा और कांग्रेस को एक सा मानते हुए, किसी नए राजनीतिक मंच की तलाश में है। भाजपा इसे अपने लिए खतरे की घंटी मान रही है। उसे आम आदमी पार्टी का वजूद स्वीकार करना पड़ रहा है, जो कुछ दिन पहले उसे नजर ही नहीं आता था।
भाजपा ने एनडीए के बिखराव और आडवाणी जैसे वरिष्ठ नेता की नाराजगी की परवाह न करते हुए नरेंद्र मोदी को पीएम पद का उम्मीदवार घोषित किया था। उम्मीद थी कि मोदी का बेलौस अंदाज, गुजरात के विकास की तस्वीर और ध्रुवीकरण की संभावना उसे आम चुनाव में शीर्ष पर ले जाएगी। खासतौर पर भ्रष्टाचार और महंगाई से परेशान मध्यवर्ग के वोट उसकी झोली में अपने आप गिरेंगे। लेकिन आम आदमी पार्टी को जिस तरह से मध्यवर्ग और शहरी इलाकों में जोरदार समर्थन मिल रहा है, उससे भाजपा की नींद उड़ गई है। उसे लगता है कि आप के ईमानदार छवि वाले स्थानी उम्मीदवार भाजपा को नुकसान पहुंचाएंगे। उसे समझ में नहीं आ रहा है कि केजरीवाल की नैतिक आभा को कैसे कमजोर करे। ऐसे मे वो आप के पीछे कांग्रेस को बताकर अपनी खीझ मिटा रही है।
देश के सभी राजनीतिक दल अब अरविन्द केजरीवाल और उनकी बनाई पार्टी “आप” को तरजीह देने लगे हैं। “आप” की शानदार सफलता ने भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी के लिए भी खतरे की घंटी बजा दी है। माना जा रहा है कि आगामी लोकसभा चुनावों में आप अगर 20-25 सीटें भी जीत लेती है तो नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्री बनना मुश्किल हो सकता है क्योंकि अगर भाजपा और उसके सहयोगियों की झोली में 272 से कम सीटें आती हैं तो उसके लिए बहुमत जुटाना मुश्किल ही नहीं असम्भव भी होगा।
भाजपा और कांग्रेस अब आम चुनावों की तैयारियों में जुट जाएंगे और देखने वाली बात यह होगी कि आम आदमी पार्टी क्या राष्ट्रीय स्तर पर भी इन दोनों पार्टियों को किसी तरह चुनौती देने की स्थिति में होती है? अगर ऐसा हुआ तो यह मानना होगा कि भारतीय राजनीति एक बार फिर निर्णायक करवट लेने वाली है।.

विवेक मनचन्दा,लखनऊ

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